अर्हम्

अर्हम्

अर्हम्

मनोनयन की स्वर्णिम बेला खुशियों में भीगे जलजात।
पुलक रहा मन पंछी मेरा वर्धापित करने दिन-रात।
दूर भले मैं तन से हूँ पर मन से नहीं जरा भी दूर।
भावों की मुक्ता मणियों को स्वीकारो जो है अवदान।।

आर्यप्रवर तुलसी के मुख से संयम का वरदान मिला।
महाप्रज्ञ की चरण शरण में जीवन का मधुमास खिला।
अप्रमाद भी राह पकड़ कर लिखो विकास के नूतन सूत्र।
रहो निरामय बनो चिरायु हर पल हर दिन हो उजला।।

गुण दरिये में अवगाहू? मुझमें वह सामर्थ्य नहीं है।
अलंकार से करूँ अलंकृत मुझमें वह पांडित्य नहीं है।
भावों का उपहार समर्पित किस भाषा में आज करूँ मैं।
गूँथ सकूँ ग्रंथों में जीवन शब्दों में लालित्य नहीं है।।