कविता

कविता

तुलसी तूने गजब मर्दानी दिखलाई।
सुनने को गण कलियाँ उत्साई।।

रूढ़िवाद से घिरा तमस था।
अज्ञानता से भरा मनस था।
फिर कैसे ज्योति विकसाई।
सुनने को गण कलियाँ उत्साई।।

समण श्रेणी सोची तुम्हारी।
पहुँची देश-विदेश फौज तुम्हारी।
कैसे उफनती नदियाँ हरसाई।
सुनने को गण कलियाँ उत्साई।।

वाणी से बरसें जब शोले।
तुमने मधुर वचन थे बोले।
‘पुढविं समे मुणी हवेज्जा’ सुक्ति मनभाई।
सुनने को गण कलियाँ उत्साई।।

श्रम की बूँदों से सींचा नंदन।
महक इसकी जैसे चंदन।
तेरापंथ पर अमित कृपा बरसाई।
सुनने को गण कलियाँ उत्साई।।

युगों-युगों जन आभारी तेरा।
सौ-सौ वंदन झेलो मेरा।
मैं भी इसकी इक परछाई।
सुनने को गुण कलियाँ उत्साई।।
तुलसी तूने गजब मर्दानी दिखलाई।।