न स्वयं डरो, न दूसरों को डराओ : आचार्यश्री महाश्रमण
संजान, 26 मई, 2023
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन वाङ्मय में चार संज्ञाएँ अथवा दस संज्ञाएँ बताई गई हैं। चार संज्ञाओं में एक है-आहार संज्ञा। जीवन को चलाने के लिए प्राणी आहार करता है। दूसरी है-भय संज्ञा जिससे प्राणी भयभीत होता है। डरना अपने आपमें एक दुःख है। अभय आदमी सुखी होता है। प्रभु महावीर कितने अभय रहे। उन्होंने भय को जीत लिया था। आदमी अनेक कारणों से भयभीत हो सकता है। अभय बनने के लिए अभय की अनुप्रेक्षा करें। दूसरों को भी भयभीत करने का प्रयास न करें। अभय के दो पक्ष हो जाते हैं, न स्वयं डरो, न दूसरों को डराओ। ये दोनों पक्ष हमारे में विकसित हों।
व्यवहार में कहीं-कहीं डरना या डराना सात्त्विक रूप में हो सकता है। जैसे अपने से बड़े या गुरु का भय होता है। इससे गलती में सुधार हो सकता है। वीतराग में तो पापभीरूता होती है। वे तो पाप से डरते हैं। हम भी पापभीरू बनें। जहाँ मोह-ममता है, वहाँ भय को पैदा होने का मौका मिल सकता है। अपरिग्रह की भावना से अभय की चेतना पुष्ट हो सकती है। हम अभयदाता बनें यह एक श्रेष्ठ दान है। अभय की साधना अहिंसा से जुड़ा तत्त्व भी है। हमारा चिंतन अच्छा हो तो हम अभय की साधना में विकास कर सकते हैं। भय से बचने के लिए अपने ईष्ट का भी स्मरण किया जा सकता है। जैसे हमारे यहाँ ‘-भिक्षु, जय भिक्षु, अभय को पुष्ट करने वाला है।
दुःख से प्राणी डरते हैं। हमारा दोनों पक्षों में अभय का विकास हो, न डरना न डराना। पूज्यप्रवर के स्वागत में वीणा परिवार से महावीर आच्छा, प्रिया आच्छा ने अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त की। ज्ञानशाला की सुंदर प्रस्तुति हुई। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने मारुस व मातुस को विस्तार से समझाया।