अर्हम

अर्हम

अजयप्रकाशजी स्वामी तेरी, साधना रंग लाए
चैतन्य दीप जाए।
शुक्लध्यान मंे रहो निरंतर, यही भावना भाए
चैतन्य दीप जल जाए।
संयम पथ पर कदम बढ़ाया, हम तीनों थे साथी
आज अकेले क्यों बनते हो, संथारे के प्रार्थी।
तपोमार्ग पर चलने का, साहस मुझमें भी आए।।
‘आत्मा भिन्न शरीर भिन्न की’, अनुभूति हो हरपल
राग-द्वेष की किचिंत मात्र, ना कोई हो हलचल
ऊंचा लक्ष्य बनाया तुमने, शीघ्र फलित हो जाए।।
तीव्र तुम्हारी उदर वेदना, अद्भूत समताधारी
वर्धमान भावों की श्रेणी, उच्च मनोबलधारी
करूं प्रार्थना सिद्ध साधना, लक्षित मंजिल पाए।।
त्रिभुवन तारणहारी गुरूवर, है परम उपकरी
मिला योग धर्मेश मुनि का, सदा रहा सुखकारी
चित्त समाधि, सेवा का मुनि धीरज अवसर पाए।।
तेरी शिक्षाओं को सदा रखूंगी अपने सिर पर
शीघ्र करूंगी पीएचडी, विश्वास रखो तुम मुझ पर
तव जैसी संकल्प दृढ़ता, मम जीवन में आए।।
ना जीने की वांछा, अब ना मृत्यु की आकांक्षा
भय चिंता का लेश नहीं, ना मन में कोई आशा
आत्मा में जो रमण करे, वह निर्मोही कहलाए।।

लय: जहां डाल-डाल पर