सम्मान के पीछे भागे नहीं, सम्मान मिले ऐसी अर्हत का अर्जन करें : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 28 अगस्त, 2021
अध्यात्म चेतना के युग पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि श्रमण धर्म के दस प्रकार बताए गए हैं। धर्म के दो प्रकार हैं। चारित्र धर्म का नाम श्रमण धर्म भी है।
इन दस प्रकारों के साथ श्रमण शब्द जोड़ा गया है, तो हम यह कल्पना करते हैं कि साधु को तो इनकी विशेष आराधना करनी चाहिए। साधु के पाँच महाव्रत होते हैं। महाव्रत की निर्मलता इन धर्मों के आराधने से रह सकती है।
पहला प्रकार हैशांति यानी गुस्से का निग्रह करना, संहिष्णुता रखना। बहुत बड़ा धर्म है। प्रतिकूल स्थिति है, फिर भी गुस्सा नहीं आए। मुनि कौन? सब कुछ सहन करने वाला जैसे पृथ्वी। मुनि का ये आदर्श रहे। मंजिल सामने है तो आगे बढ़ सकते हैं। मंजिल तय ही नहीं है, तो आदमी किधर गति तय करेगा। कहाँ पहुँचेगा। आदर्श को तय कर लेना अपने आपमें अच्छी बात है।
आदर्श दो प्रकार के होते हैंएक व्यक्तिपरक आदर्श, दूसरा सिद्धांतपरक आदर्श। किसी व्यक्ति को अपना आदर्श बना लेना यह व्यक्तिपरक आदर्श है। जैसे भगवान महावीर मेरे आदर्श हैं। उनके गुण मुझमें आएँ, मैं उन जैसा बन जाऊँ। यहाँ पर भी दो बातें हैंएक भौतिकतापरक आदर्श, एक आध्यात्मिकतापरक आदर्श। जैसे मैं तिपृष्ट वासुदेव जैसा बनूँ यह भौतिकतापरक आदर्श है।
सिद्धांतपरक आदर्श है, जैसे क्षमाशीलता। उत्तम कोटि की क्षमा मेरा आदर्श हो। सिद्धांत, तथ्य, धर्म कह दें या व्यक्तिपरक वहीं सिद्धांतपरक होते हैं। सब कुछ सहन कर लेना मुनि का आदर्श है। ॠषि होते हैं, वे महान प्रसाद वाले, प्रसन्नता वाले होते हैं। मुनि कभी कोप में तत्पर नहीं होते। यह आलंबन लिया जा सकता है।
दूसरा धर्म हैमुक्ति-निर्लोभता। पदार्थों का लोभ-आकर्षण नहीं। रागात्मक आकर्षण पदार्थों का न हो। तीसरा धर्म हैआर्जव। माया का निग्रह करना, सरलता रखना। करनी-कथनी में असमानता न हो। पारदर्शिता रखो। चौथा हैमार्दव। मान-अहंकार का निग्रह। जहाँ सब नेता बन जाते हैं, सारे लोग अपने आपको पंडित मानने लग जाएँ, सारे महत्त्व चाहते हैं, वो राष्ट्र दु:खी होगा।
देवलोक में दो प्रकार की व्यवस्थाएँ हैं। कल्पोपन्न और कल्पातीत। कल्पोपन्न यानी जहाँ इंद्र आदि की व्यवस्था होती है। कल्पातीत में सारे अहमिन्द्र हैं। जिसकी जितनी योग्यता है, उस हिसाब से रहे तो व्यवस्था अच्छी रह सकती है। चार धर्म आ गए हैं, छह धर्म और हैं। माणक महिमा की व्याख्या करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि माणक गणी सिधार गए हैं। अवांछनीय स्थिति बन गई है। सारे संतों ने चिंतन कियाआगे क्या कैसे करें। उस समय 14 संत और 17 सतियाँ गुरुकुलवास में हैं। कैसे धर्मसंघ को आचार्य पर्याप्त हो, ऐसा चिंतन चल रहा है। संघ जैसे बिना ग्वाला के गायों जैसे हो गया हो, बिना सेनापति की सेना, बिना चाँद की चाँदनी। बिना माली का बगीचा, बिना रखवालदार के खेती की तरह हो गया है। शासन की शान कैसे बचानी, इस तरह विचार-विमर्श हो रहा है। जो होना था सो हो गया, अब आगे क्या, कैसे करना है। हम सब मिलकर बड़प्पन दिखाएँ। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। टीपीएफ राष्ट्रीय मंत्री हिम्मत जैन ने टीपीएफ की गतिविधियों के बारे में बताया। कार्यक्रम का संचालन राजेंद्र सेठिया ने किया। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि संघीय विकास का आधारभूत तत्त्व साधार्मिक-वात्सल्य है। जैन धर्म का दक्षिण में विकास साधार्मिक वात्सल्य के आधार पर ही हुआ था। अभयदान-प्रभावना का महत्त्व समझाया।
साध्वी कौशलप्रभा जी ने सुमधुर गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि हमारा लक्ष्य सिद्धि प्राप्ति का है। रफ्तार से ज्यादा दिशा महत्त्वपूर्ण है।