इंद्रियों का संवर करने से आत्मानुशासन का मार्ग प्रशस्त होता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 23, अगस्त, 2021
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने ठाणं आगम के 10वें अध्याय की व्याख्या करते हुए फरमाया कि अध्यात्म की साधना का एक अति महत्त्वपूर्ण अंग हैसंवर। भीतर जाने के लिए संवर की आवश्यकता होती है। भीतर जाना है, तो बाहर का संवरण करना अपेक्षित होता है। जितना-जितना आदमी इंद्रिय विषयों के संपर्क में रहता है, उनमें आसक्त रहता है, उतना-उतना वह भीतर से मानो दूर हो जाता है।
जितना-जितना आदमी इंद्रिय विषयों के संपर्क का संयम करता है, आसक्ति का भी परित्याग करता है, साथ में मन, वचन, काया का भी संवर करता है, वह भीतर में रह सकता है। ज्यों-ज्यों आदमी उत्तम तत्त्व की प्राप्ति करता है, उत्तम तत्त्व से संवृत होता है, त्यों-त्यों विषयों से वह दूर हो जाता है।
शास्त्रकार ने यहाँ संवर के दस प्रकार बताए हैं। श्रोत-इंद्रिय संवर, चक्षु-इंद्रिय संवर, घ्राण-इंद्रिय संवर, रसन-इंद्रिय संवर, स्पर्शन-इंद्रिय संवर, मन संवर, वचन संवर, काय संवर, उपकरण संवर और सूची कुशाग्र संवर। ये दस चीजें ऐसी बताई हैं, जो इनमें संवर की प्रेक्टिकल साधना है। इन दस को संक्षेप में करें तो पाँच बातों में संवर समाविष्ट हो सकता है। इंद्रिय संवर, मन: संवर, वाक् संवर, काय संवर और उपकरण संवर।
यह संवरण एक प्रकार का अनुशासन भी है। इंद्रियों का संवर करने से आत्मानुशासन की दिशा में आदमी आगे बढ़ता है। मन:संवर से मनोनुशासन, वाणी संवर से वचनोनुशासन, काय संवर से शरीर पर अनुशासन और उपकरणों का संवर करने से आत्मानुशासन की दिशा में आगे बढ़ सकता है। भीतर रहना और विषयासक्त रहना दोनों में तालमेल नहीं बैठ सकता है।
भीतर में जाने के लिए संवर की साधना, आत्मानुशासन की साधना अपेक्षित होती है। बाहर की अपनी दुनिया है, भीतर की अपनी दुनिया है। पदार्थों का उपयोग हो, उपभोग न हो। अनासक्ति एक ऐसा तत्त्व है, उसका और भीतर में रहने का अच्छा संबंध है। रहो भीतर, जीयो बाहर।
आदमी समुदाय में रहकर भी अनासक्त रहे तो भीतर में स्थिति हो सकती है। श्रोतेेंद्रिय का अनावश्यक उपयोग न करें। इसी तरह चक्षु का संवर करें। देखना हो तो अनासक्ति रहे। घ्राणेंद्रिय का भी संवर हो। राग-द्वेष से बचें। रसनेंद्रिय संयम, अपेक्षित नहीं है, तो भोजन भी न करें। खाने में भी अनासक्ति न हो। स्पर्शनेंद्रिय का भी संयम करें। सुख पाने के लिए भी स्पर्श का उपयोग न करें।
मन की चंचलता को रोकें, वाणी का संयम करें। शरीर का भी संयम करो। काया की चंचलता को भी रोकें। उपकरणों का भी संवर हो। अध्यात्म की साधना के लिए देखें तो भीतर में जाने के लिए संवर की साधना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
माणक महिमा का विवेचन करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि माणकगणी ने वि0सं0 1953 का चतुर्मास बीदासर में करवाया एवं मर्यादा महोत्सव लाडनूं किया। उसके बाद थली में विचरण कर वि0सं0 1954 का चतुर्मास करने सुजानगढ़ पधारे। यह माणकगणी के जीवन का अंतिम चतुर्मास था। चार तीर्थ में तीव्र तपस्या हो रही है। आसोज माह में गुरुदेव के अतिसार की बीमारी हो गई। दवाई भी काम नहीं कर रही है। चिंता की बात हो गई। बीदासर से यती केवलचंद परीक्षण करने हेतु आए।
यती जी बोले जो करना है, सो कर लो, बात विचार करने जैसी है। संतों ने सुना तो चिंता हो गई। आगे की बात आगे।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। भीलवाड़ा के जज राजेश कटारा ने पूज्यप्रवर के दर्शन किए। पूज्यप्रवर ने अहिंसा यात्रा के उद्देश्यों को समझाया। मेघना जैन ने भी दर्शन किए। सम्यक्त्व दीक्षा स्वीकार करवाई।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि आस्था सम्यक् दर्शन का मूल मंत्र है। तत्त्व के प्रति या जिनवाणी के प्रति संदेह न हो। हमारी आस्था अडोल रहे। सम्यक् दर्शन का दूसरा गुण है निष्कांक्षा। जो साधना करता है, साधना के मार्ग में आगे बढ़ने वाले के लिए संशय किसी भी स्थिति में नहीं होना चाहिए।
व्यवस्था समिति द्वारा जज राजेश कटारा का मोमेंटो से सम्मान किया। विमला आंचलिया वाशी, मुंबई ने 31 की तपस्या के प्रत्याख्यान पूज्यप्रवर से लिए। कंवरलाल झाबक, ललित दुगड़, स्नेहलता झाबक ने अपनी भावना श्रीचरणों में व्यक्त की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि आत्मरमण करना, भीतर में जाना सीखें।