कलहमुक्त और संस्कारयुक्त परिवार बनाएं बेटियां: आचार्यश्री महाश्रमण
20 अगस्त 2023, नंदनवन
तीर्थंकर के प्रतिनिधि महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्नोत्तर का क्रम भी काफी चलता है। प्रश्नोत्तर के क्रम में बताया गया कि हमारी यह दुनिया वैसे आकाश में स्थित है। जैन दर्शन के अनुसार आकाश अनन्त है, एक प्रकार है। आकाश का आदि या अंत नहीं होता। आकाश का कोई ओर छोर नहीं होता। आकाश के दो भाग बताये गये हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश। सम्पूर्ण आकाश में छोटा-सा लोकाकाश है। अलोकाकाश में कोई प्राणी नहीं होता न कोई पुद्गलात्मक चीज और न धर्मा- स्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य होता है। केवल वहां आकाश द्रव्य है।
इस छोटे से लोकाकाश में हमारी सारी दुनिया है। सारे के सारे जीव निकाय इस लोकाकाश में है। मोक्ष में विराजमान सिद्ध आत्माएं भी इसी लोकाकाश में है। धर्मास्तिकाय आदि छः द्रव्य इसी लोकाकाश में है। धर्मास्तिकाय हमारे हलन-चलन में अमूर्त रूप से सहायता करने वाला द्रव्य है। अधर्मास्तिकाय का कार्य है, गतिनिरोध- स्थिरता में सहयोग देना। आकाश ठहरने के लिये स्थान देता है। काल का कार्य है- वर्तना-बीतना।
पुद्गलास्तिकाय जो भी हमें दिखाई देता है, वह पुद्गल है। इनमें कुछ तो दिखाई देते है, कुछ दिखाई नहीं देते, पर है, वे मूर्त। हम लोग जितने प्राणी हैं, वह सब जीवास्तिकाय है। सारे जीव लोकाकाश में ही है। यह पूरी दुनिया षडद्रव्यात्मक है। छः द्रव्यों में पांच अमूर्त है, केवल पुद्गला- स्तिकाय ही मूर्त है, रूपी है।
जीव और पुद्गल का भी संबंध है, जो आत्माएं मोक्ष मेें चली गई, वे तो अमूर्त है, पर हमारी आत्मा पुद्गल से प्रभावित है, पूर्णतया स्वच्छ नहीं है। जीव के प्रभाव से पुद्गल में और पुद्गल के प्रभाव से जीव मे परिवर्तन होता है।
पुद्गल वह होता है, जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण भी होती है। कर्म चतुस्पर्शी होते हैं। कर्म मूर्त है, वो हमारी अमूर्त आत्मा के साथ धुले मिले हुए है। इस कारण संसार भ्रमण होता है। सिद्धों की आत्मा तो पूर्णतया अमूर्त है, पर संसारी जीवों की आत्मा कर्मों से धुली हुई है, इन कर्मों से ही कर्म बंधते है। विशुद्ध आत्मा के कर्मों का बंध हो भी नहीं सकता। कोई आदमी अपने जीवन में माया-धोखाधड़ी करता है तो पापचार में प्रवृत्त हो जाता है। माया आत्मा को पाप कर्मों का बंध कराने वाली होती है। वर्तमान में संसारी आत्मा कर्मों से बंधी हुई होती है। आदमी माया का व्यवहार करता है। आदमी इसी माया के कारण व्यापार, व्यवहार, समाज आदि में धोखाधड़ी करता है। माया हमारे जीवन में न रहे या इसका अल्पीकरण हो जाये। माया से झूठ का संबंध होता है। सच्चाई और सरलता का रास्ता सीधा सपाट है। माया का रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा है। गृहस्थ भी सदाचार का जीवन जीये। माया से विश्वसनीयता चली जाती है। कहीं झूठ बोलकर किसी को फंसा देना, झूठ बोलकर किसी का धन हड़प लेना, यह सबकुछ मायाचार होता है। झूठ, चोरी, छल, कपट और धोखाधड़ी से कमाया हुआ पैसा अशुद्ध होता है तथा न्याय नीति और श्रम से कमाया हुआ धन शुद्ध होता है। इसलिए आदमी को अपने जीवन में मायाचार से बचने और जीवन में सरलता, ऋजुता, सच्चाई, ईमानदारी और प्रमाणिकता जैसे सद्गुणों का विकास करने का प्रयास करना चाहिए।
पूज्यवर के पचासवें दीक्षा कल्याणक अवसर पर सुरेश तातेड़ ने 51 की तपस्या का प्रत्याख्यान परम पावन से ग्रहण किया। अन्य तपस्वियों ने भी अपनी तपस्याओं के प्रत्याख्यान पूज्यवर से ग्रहण किये।
साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने फरमाया कि हमारे मन में शांति हो तो हम जीवन के अनेक रहस्यों को प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए हमे भीतर के जगत में प्रवेश करना होगा। जो व्यक्ति आत्मा के स्तर पर जीना सीख लेता है, वह व्यक्ति हमेशा आनंद की अनुभूति करता है। हम प्रतिक्रिया मुक्ति का जीवन जीयें।
जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में आयोजित ‘बेटी तेरापंथ की’ सम्मेलन के द्वितीय दिवस पर कच्छ-भुज से संभागी बेटियों व मध्यप्रदेश से समागत बेटियों ने पृथक्-पृथक् गीत का संगान किया। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने आर्शीवचन प्रदान करते हुए फरमाया कि तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में द्विदिवसीय अच्छा कार्यक्रम चला। बेटियां जहां भी रहें अपने जीवन में अहिंसा, संयम और तप के प्रभाव को बनाए रखें। जहां तक संभव हो, दूसरों को भी धार्मिक- आध्यात्मिक सहयोग दें। अपने परिवार को कलहमुक्त और संस्कार से युक्त बनाने का प्रयास करें। प्रीति कोठारी ने स्वलिखित पुस्तक ‘मां, पिता व गुरु’ को पूज्यचरणों में लोकार्पित करते हुए अपनी भावनाएं व्यक्त की। पूज्यवर ने उन्हें पावन आशीर्वाद प्रदान करवाया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।