प्रज्ञा के सागर थे आचार्य महाप्रज्ञ
आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी का जन्म राजस्थान के थली संभाग के टमकोर गाँव में पिता तोलाराम जी माता बालू देवी की कुक्षी में हुआ। टमकोर एक साधारण गाँव था जहाँ ना तो रेल आती, ना कोई सड़क ना कोई विद्यालय परंतु वहाँ के लोग जैन श्वेतांबर तेरापंथ संघ के अनुयायी थे। वहाँ समय-समय पर साधु-साध्वियों का आना-जाना रहता था। कई बार चतुर्मास भी होते थे। लोगों में साधु-साध्वियों के दर्शन, सेवा, प्रवचन सुनने आदि की भावना रहती थी, जिससे उन्हें समय-समय पर धार्मिक संस्कार मिलते रहते थे।
आचार्य महाप्रज्ञ जी का नाम नथमल था। छोटी अवस्था में ही आपके पिताजी श्रीमान तोलाराम जी का निधन हो गया था। घर की सार-संभाल करने वाला कोई नहीं था। इसलिए माता बच्चों को लेकर पीहर चली गई। पीहर वाले काफी सक्षम थे। नथमल जी का लालन-पालन ननिहाल में हुआ। बड़े होने पर पारिवारिक जन पुन: सबको टमकोर ले आए। वहाँ उस समय मुनिश्री छबील जी का चतुर्मास था। पारिवारिक सदस्य सेवा दर्शन का पूरा लाभ लेते थे। मुनि छबील जी के सहयोगी मुनि मूलचंद जी ने बालक नथमल को कुछ तत्त्व ज्ञान करवाया और संसार की नश्वरता का बोध करवाया जिससे नथमल के हृदय में वैराग्य भावना उत्पन्न हो गई। नथमल ने माता से दीक्षा की बात कही तब माता ने कहा जब तू लेगा तो मैं घर पर रहकर क्या करूँगी मैं भी दीक्षा लेकर तुम्हारे साथ साध्वी बन जाऊँगी। माँ-बेटे दोनों मन को पक्का बना रहे थे। संतों ने उन्हें पूज्य कालूगणी के दर्शनों की प्रेरणा दी और माँ-बेटे गोपीचंद जी के साथ पूज्य कालूगणी के दर्शनार्थ गंगानगर गए। उस समय यातायात के साधनों की दिक्कत थी। गंगानगर में पूज्य कालूगणी के प्रथम दर्शन और प्रवचन से बालक नथमल का वैराग्य और अधिक पुष्ट हो गया और पूज्य कालूगणी से दीक्षा की अर्ज की। पूज्यप्रवर ने माँ-बेटे की भावना पर ध्यान देते हुए साधु प्रतिक्रमण की आज्ञा प्रदान की।
टमकोर पहुँचते ही संतों ने उन्हें प्रतिक्रमण आदि आवश्यक तत्त्वों का ज्ञान करवाया। पूज्य कालूगणी गंगाशहर के पश्चात सरदारशहर मर्यादा महोत्सव के लिए पधार रहे थे। माँ-बेटे ने सरदारशहर से पूर्व सालासर में गुरुदेव के दर्शन करके दीक्षा की अर्ज की पूज्य गुरुदेव ने बालक नथमल की दीक्षा प्रणाली पर माता को अनुमति नहीं मिली नथमल के आग्रह भरे निवेदन पर ध्यान देकर माता बालू जी की दीक्षा फरमा दी। सरदारशहर मर्यादा महोत्सव पर आपकी दीक्षा हुई। दीक्षित होते ही पूज्यप्रवर ने आपकी शिक्षा साध्वाचार आदि के प्रशिक्षण के लिए मुनि तुलसी के पास नियुक्ति की मुनि तुलसी ने अपनी गहरी सूझ-बूझ से नवदीक्षित मुनि नथमल का ऐसा निर्माण किया वे महाप्रज्ञ के रूप में उभरकर आए। मुनि नथमल जी की विनम्रता, सरलता, आचारनिष्ठा, गुणग्राहकता, सहिष्णुता, अध्ययनशीलता, कर्तव्यपरायणता अद्वितीय थी। आप इन्हीं गुणों के कारण द्वितीया के चंद्रमा के समान प्रवर्धमान रहे। मुनि तुलसी जब आचार्य बन गए तब भी आपको उनकी निकट सेवा का दुर्लभ अवसर प्राप्त होता रहा। आगम तत्त्व सिद्धांतों के गहराई से समझकर आप एक अच्छे साहित्यकार, प्रवचनकार व्याख्याकार बनें। आपने हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी भाषा में जो साहित्य लिखा उसे पढ़कर पाठकगण आपकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं।
आप हिंदी, संस्कृत, प्राकृत भाषा के आशुकवि थे। उनकी प्रज्ञा के आगे सभी नतमस्तक थे। उन्होंने केवल जैन और तेरापंथ के लोगों के दिलों में ही नहीं अपितु मूर्धन्य साहित्यकार, चिंतक, वैज्ञानिक, राजनेता, उद्योगपतियों के दिलों में भी गहरा स्थान बनाया।
आपकी कार्यक्षमता को देखकर आचार्य श्री तुलसी ने अपने रहते ही अपना आचार्य पद विसर्जन कर महाप्रज्ञ जी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। यह तेरापंथ धर्मसंघ में नवीन कार्य कहा जा सकता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने जीवन के अंतिम दिवस तक सक्रिय जीवन जीया। प्रवचन, लेखन, अध्यापन सब व्यवस्थित चले। आपने आचार्यश्री तुलसी के महाप्रयाण के पश्चात अपने उत्तराधिकारी की विधिवत घोषणा कर पूर्ण निश्चित हो गए थे। वि0सं0 2009 को ज्येष्ठ एकादशी के दिन सरदारशहर में आपका महाप्रयाण हो गया। यह भी एक दुर्लभ योग ही था कि सरदारशहर में ही आपने दीक्षा ली। अग्रगण्य बनकर प्रथम चतुर्मास सरदारशहर में ही किया और अंतिम समय भी सरदारशहर वासियों को मिला।
आपकी अनेक विशेषताओं को जड़ लेखनी से लिख पाना साधारण व्यक्ति का काम नहीं है। आपके 10वें जन्मदिवस पर यही मंगलकामना करते हैं कि आप द्वारा दर्शित पथ का अनुसरण करके आचार्य महाश्रमण जी की छत्रछाया में संयम पर निर्बाध गतिमान बने रहें।