उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य स्थूलभद्र
भद्रबाहु के बाद वी0नि0 170 (वि0पू0 300) में स्थूलभद्र ने आचार्य पद का नेतृत्व संभाला था। उनसे विविध रूपों में जैनशासन की प्रभावना हुई थी। दुष्काल-परिसमाप्ति के बाद आगम-वाचना का महत्त्वपूर्ण कार्य आर्य स्थूलभद्र की सन्निधि में हुआ था। स्थूलभद्र के जीवन का लगभग एक शतक आरोह और अवरोह से भरा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पृष्ठ है।
आचार्य स्थूलभद्र दीर्घजीवी आचार्य थे। तीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। लगभग सत्तर वर्ष के मुनिकाल में पैंतालीस वर्ष तक उन्होंने आचार्य पद के दायित्व को कुशलतापूर्वक वहन किया। उनके जीवन की विशेषताओं से आचार्य पद स्वयं मंडित हुआ। वैभारगिरि पर्वत पर पंद्रह दिन के अनशन के साथ वी0नि0 215 (वि0पू0 255) में वे स्वर्गवासी हुए।
आचार्य महागिरि
आर्य महागिरि जैन श्वेतांबर परंपरा के प्रभावक आचार्य थे। वे महामेधावी, परमत्यागी निरतिचार संयम-धर्म के आराधक और जिनकल्प तुल्य साधना करने वाले विशिष्ट साधक थे। तीर्थंकर महावीर की पट्टधर परंपरा में उनका क्रम नौवाँ है। दस पूर्वधर परंपरा में आर्य महागिरि का स्थान सर्वप्रथम है।
आर्य महागिरि का जन्म एलापत्य गोत्र में हुआ। उनका जन्म-समय वी0नि0 145 (वि0पू0 325) बताया गया है। संसार से विरक्त होकर तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने श्रुतधर आचार्य स्थूलभद्र के पास वी0नि0 175 (वि0पू0 295) में मुनि दीक्षा ग्रहण की। गुरु की सन्निधि में चालीस वर्ष तक रहे। इस अवधि में उनको दस पूर्वों की विशाल ज्ञाननिधि गुरु से उपलब्ध हुई।
आर्य सुहस्ती भी आचार्य स्थूलभद्र द्वारा दीक्षित मेधावी श्रमण थे। उनकी दीक्षा आर्य महागिरि की दीक्षा के अड़तीस अथवा उनतालीस वर्ष बाद हुई थी। आचार्य स्थूलभद्र के जीवन का वह संध्याकाल था। भावी आचार्य पद-निर्णय के समय आचार्य स्थूलभद्र ने अपने स्थान पर शांत, दांत, लब्धि-संपन्न, आगमविज्ञ, आयुष्यमान, भक्ति-परायण आर्य महागिरि एवं सुहस्ती इन दोनों शिष्यों की नियुक्ति की। इसका कारण उभय शिष्यों का प्रभावशाली व्यक्तित्व ही हो सकता है।
उस समय एकतंत्रीय शासन की परंपरा सबल थी। उभय शिष्यों की नियुक्ति एक साथ होने पर भी कार्य-संचालन की दृष्टि से एक-दूसरे का हस्तक्षेप नहीं था। दीक्षा क्रम में ज्येष्ठ शिष्य ही आचार्य पद के दायित्व को निभाते थे। आचार्य यशोभद्र एवं स्थूलभद्र के द्वारा आचार्य पद के लिए दो-दो शिष्यों की नियुक्ति एक साथ होने पर भी यशस्वी आचार्य यशोभद्र के बाद उनके दायित्व को दीक्षा क्रम में ज्येष्ठ होने के कारण आचार्य संभूतविजय ने एवं आचार्य स्थूलभद्र के बाद उनका दायित्व आचार्य महागिरि ने संभाला था।
श्रुतसागर आचार्य भद्रबाहु अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता आचार्य संभूतविजय के अनुशासन का एवं आर्य सुहस्ती आर्य महागिरि के अनुशासन का सुविनीत शिष्य की भाँति पालन करते रहे थे।
आर्य महागिरि महान् योग्य आचार्य थे। उन्होंने अनेक मुनियों को आगम-वाचना प्रदान की। आचार्य सुहस्ती जैसे महान् प्रभावक आचार्य भी उनके विद्यार्थी शिष्य-समूह में एक थे।
उग्र तपस्वी आर्य महागिरि के महान् उपकार के प्रति आर्य सुहस्ती आजीवन कृतज्ञ रहे एवं उनको गुरु-तुल्य सम्मान प्रदान किया था।
गुरुगच्छ धुराधारण धौरेय, धीर, गंभीर आर्य महागिरि ने एक दिन सोचागुरुतर आत्म-विशुद्धिकारक जिनकल्प तप वर्तमान में उच्छिन्न है, पर तत्सम तप भी पूर्व संचित कर्मों का विनाश कर सकता है। मेरे स्थिरमति अनेक शिष्य सूत्रार्थ के ज्ञाता हो चुके हैं। मैं अपने इस दायित्व से कृतकृत्य हूँ। गच्छ की प्रतिपालना करने में सुहस्ती सुदक्ष है। गण-चिंतन से मुझे मुक्त करने में वह समर्थ है। अत: इस गुरुतर दायित्व से निवृत्त एवं गण से संबंधित रहते हुए आत्महितार्थ विशिष्ट तप में स्व को नियोजित कर मैं महान् फल का भागी बनूँयह मेरे लिए कल्याणकारक मार्ग है।
महासंकल्पी अंतर्मुखी आचार्य महागिरि की चिंतनधारा दृढ़ निश्चय में बदली। संघ-संचालन का भार आर्य सुहस्ती को संभलाकर वे जिनकल्पतुल्य साधना में प्रवृत्त हुए। भयावह उपसर्गों में निष्प्रकंप नगर, ग्राम, आराम आदि के प्रतिबंध से मुक्त बने एवं श्मशान-भूमिकाओं में गणनिश्रित विहरण करने लगे।
आर्य महागिरि दीर्घजीवी आचार्य थे। वे तीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे। मुनि पर्याय का उनका काल चालीस वर्ष का एवं युगप्रधान आचार्य पद का तीस वर्ष का था।
उन्होंने युग का पूरा एक शतक अपनी आँखों से देखा। मालव प्रदेश के गजाग्रपद स्थान पर वी0नि0 245 (वि0पू0 225) में स्वर्गवासी बने। (क्रमश:)