साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी के 32वें दीक्षा दिवस पर
वीणा बन मैं गाऊँ गान, मधुर-मधुर तबले की तान।
तानों में सपनों का संसार है, वंदन बारंबार है।।
शुभ भावों पर रहता था राज, इसीलिए कहलाए हो महाराज।
सतियों के ताज हैं, तुम पर नाज है।
कदम-कदम साकार है, उसमें अभिनव आकार है।।
समण श्रेणी आरोहण श्रमण द्वार, गुरुनिष्ठा स्यूं है जयकार।
काँटों में फूल हो, श्रद्धा में मूल हो।
समता के आगार है, ओर सजी वान्दनवार है।।
अरुण की हर किरण में दर्शन, लहर हवां चरण स्पर्शन।
यही भाव है, यही स्राव है।
मुखरित तन्त्री के तार है, तारों से रजनी संचार है।।
‘नीति’ करती अभिनंदन सतिराज, पुलक उठे ये प्राण आज।
मन बाग है, जग राग है।
जुड़ा मनांगन तार है, आशिषों की बहा दो धार है।।
लय: धीरे-धीरे बोल---