वीतरागता के लिए आवश्यक है अज्ञान और मोह का विवर्जन: आचार्यश्री महाश्रमण
नवी मुंबई में आयोजित दीक्षा समारोह में संयम प्रदाता ने दी शाश्वत सुख प्राप्ति की प्रेरणा
कोपरखैरना, मुंबई, 31 जनवरी, 2024
कोपरखैरना के संयम महाश्रमण समवसरण में संयम के सुमेरू आचार्यप्रवर ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी के भीतर सुख प्राप्त करने की आकांक्षा रहती है। एक सुख वह होता है जो पदार्थ जन्य होता है, बाह्य परिस्थिति की अनुकूलता से मिलता है, परंतु वह तात्कालिक होता है, अस्थायी होता है। कर्म की निर्जरा होने से जो भीतरी आनंद की प्राप्ति होती है वह सुख आंतरिक होता है, किसी बाह्य परिस्थिति पर निर्भर नहीं होता। आंतरिक सुख यदि पूर्णरूपेण प्राप्त हो जाए तो वह शाश्वत सुख हो जाता है।
भारतीय दार्शनिक साहित्य में मोक्ष का वर्णन प्राप्त होता है। जहाँ एकांत सुख होता है, वह मोक्ष होता है। एकांत सुख प्राप्त करने की कई शर्तें बताई गई हैं। पहली शर्त है-सर्व ज्ञान का प्रकाशन होना। सर्व ज्ञान प्रकाशन भी तभी हो सकता है जब उस आत्मा के राग-द्वेष का क्षय हो गया हो। राग-द्वेष मुक्ति अर्थात् वीतरागता के लिए अज्ञान और मोह का दूर होना जरूरी है।
अज्ञान दो प्रकार का होता है-औदयिक भावजन्य अज्ञान- ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होने वाला अज्ञान। दूसरा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से युक्त अज्ञान। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होने वाला अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक होता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से युक्त अज्ञान मिथ्यात्व युक्त होने के कारण अज्ञान है, वह अज्ञान पहले और तीसरे गुणस्थान में ही होता है। मिथ्या दृष्टि भी दो प्रकार की होती है-एक मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाली और दूसरी दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली। हमें अज्ञान और मोह का विवर्जन करना होगा तभी वीतरागता की स्थिति प्राप्त हो सकेगी।
आज दीक्षा समारोह आयोजित हो रहा है। एकांत सुख वाला मोक्ष पाने के लिए हमें दीक्षा लेनी चाहिए। मुनि दीक्षा होना बहुत बड़े भाग्य की बात होती है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम के बिना दीक्षा प्राप्त नहीं हो सकती। कवित्व या राजत्व की अपेक्षा मुनित्व की प्राप्ति होना दुर्लभ और बड़ी बात होती है।
दीक्षा संस्कार शुरू करते हुए पूज्यप्रवर ने परिजनों से मौखिक आज्ञा प्राप्त की। भगवान महावीर, तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु एवं उनकी उत्तरवर्ती आचार्य परंपरा की श्रद्धासिक्त स्मृति कर, आचार्यप्रवर ने आर्षवाणी का उच्चारण कराते हुए मुमुक्षु मुकेश को यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से सर्व सावद्य योग का त्याग करवाकर सामायिक चारित्र ग्रहण करवाया। आर्ष वाणी से अतीत की आलोचना के पश्चात पूज्यप्रवर ने नव दीक्षित मुनि का केश लुंचन कर रजोहरण प्रदान किया। नामकरण संस्कार कराते हुए पूज्यप्रवर ने नवदीक्षित मुनि का नाम मुनि मुकेश कुमार रखा एवं संयम जीवन हेतु पावन प्रेरणा प्रदान करवाई।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि आज के इस युग में लोग भौतिक सुखों को प्राप्त करने के लिए दौड़-भाग कर रहे हैं पर उन्हें आंतरिक सुख नहीं मिल रहा है। धन के द्वारा भौतिक समृद्धि तो प्राप्त की जा सकती है, क्षणिक शांति मिल सकती है पर स्थायी शांति के लिए अध्यात्म का मार्ग की अपनाना होगा। जो त्याग की दिशा में आगे बढ़ता है उसे सुख की अनुभूति होती है। त्याग के मार्ग पर वही प्रस्थित हो सकता है जिसके भीतर में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हो जाते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार में वैराग्य के तीन प्रकार बतलाए हैं-दुःख गर्भित, मोह गर्भित, ज्ञानगर्भित वैराग्य। ज्ञान गर्भित वैराग्य व्यक्ति को शाश्वत सुख की ओर ले जाने वाला होता है। तेरापंथ धर्मसंघ की दीक्षा विलक्षण दीक्षा है, क्योंकि यहाँ प्रायः दीक्षा संस्कार आचार्यवर के द्वारा ही संपन्न किया जाता है। यह दीक्षा सर्वात्मना समर्पण की दीक्षा होती है। दीक्षा के समय केश और क्लेश का मुंडन किया जाता है, क्लेश के मुंडन के बाद ही दीक्षार्थी आत्मिक आनंद को प्राप्त करता है।
दीक्षा संस्कार से पूर्व मुमुक्षु सुरेंद्र ने दीक्षार्थी का परिचय प्रस्तुत किया एवं उपासक जयंती लाल सुराणा ने आज्ञा पत्र का वाचन किया। मुमुक्षु मुकेश के पिता प्रकाश चिप्पड़ द्वारा आचार्यप्रवर के श्रीचरणों में आज्ञा पत्र निवेदित किया गया। मुमुक्षु मुकेश चिप्पड़ ने अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोते हुए कहा कि आचार्यप्रवर द्वारा संबोधि पुस्तक के स्वाध्याय की प्रेरणा मेरे जीवन की दशा और दिशा बदलने वाली थी।
पूज्यप्रवर के स्वागत में स्वागताध्यक्ष भगवती पगारिया, सभाध्यक्ष जसराज छाजेड़ एवं डॉ0 संजीव गणेश नाईक ने अपनी भावाभिव्यक्ति प्रस्तुत की। तेरापंथ युवक परिषद एवं तेरापंथ महिला मंडल द्वारा स्वागत गीत की प्रस्तुति दी गई।