मुंबई मर्यादा महोत्सव पर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी द्वारा वि0सं0 2059 में समुच्चारित गीत

मुंबई मर्यादा महोत्सव पर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी द्वारा वि0सं0 2059 में समुच्चारित गीत

 
 
साधना का पथ तुम्हारा, देव! कैसे खोज पाएँ।
और किस आराधना से, संघनिष्ठा को बढ़ाएँ।।
 
(1) भिक्षु तुमने जो दिया है, संघ ने तुमसे लिया है।
उस अमर अनुशासन की, वर्णमाला को पढ़ाएँ।।
 
(2) दूर को तुमने सहा है, निकट को भी तब सहा है।
शक्ति का वह मंत्र गुरुवर! आज हम सबको बताएँ।।
 
(3) ताप को तुमने सहा है, भूख को तुमने सहा है।
शक्ति के उस पीठ पर अब, सिद्धि का गुर समझ पाएँ।।
 
(4) सोचता हूँ वह सही है, सीख का अवसर नहीं है।
क्या नहीं मैं जानता जो, दूसरे मुझको सिखाएँ।।
 
(5) सीख दे वह तो बया है, और यह बंदर नया है।
मान की आँधी थमे अब, विनय का दीपक जलाएँ।।
 
(6) विष अमृत बनता विनय से, वर विधायक भाव लय से।
फिर निषेधात्मक प्रकृति से, अमृत को विष क्यों बनाएँ।।
 
(7) हो अहिंसा का प्रखर स्वर, सुन सके हर मनुज हर घर।
चेतना के तार सारे, दृष्टि बल से झनझनाएँ।।
 
(8) बीज बोया क्रांति का जो, फल मिला वह शांति का जो।
आर्य तुलसी का अनुग्रह, सफल हो सब कल्पनाएँ।।
 
(9) मुंबई में हम प्रवासी, संघ का मानस प्रवासी।
है प्रतीक्षा में प्रणत सब, भाव से सबको बुलाएँ।।
 
(10) सिद्ध मर्यादा महोत्सव, सफल हो ‘महाप्रज्ञ’ हर लव।
मुंबई के सिंधु तट पर, संघ को शिखरों चढ़ाएँ।।
 
(11) संत सत्तावन यहाँ हैं, बानबे सतियाँ यहाँ हैं।
समणियाँ नब्बे यहाँ हैं, समण चारों ही यहाँ हैं।
एकता का सूत्र गण हैं, नित नई खोले दिशाएँ।।
 
लय: लक्ष्य है ऊँचा हमारा---