कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के प्रति हों जागरुक : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के प्रति हों जागरुक : आचार्यश्री महाश्रमण

वाशी, मुंबई। २० फरवरी, २०२४

तेरापंथ धर्म संघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी ने पावन अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि साधु संयत हो, विरत हो, पाप कर्मों का प्रतिहनन और प्रत्याख्यान करने वाला हो। साधु बनना अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण बात होती है। आत्म कल्याण के संदर्भ में इंजीनियर, डॉक्टर, न्यायाधीश, प्रोफेसर आदि बनने की अपेक्षा में साधु बनना बहुत बड़ी बात होती है।
साधु का सबसे पहला कर्त्तव्य है- साधुत्व की रक्षा करना। साधु विद्वान, साहित्यकार, वक्ता आदि बने अथवा न भी बने पर उसकी साधुता अच्छी होनी चाहिये। हमारे जीवन में कर्त्तव्य का बहुत महत्त्व होता है। कर्त्तव्य का बोध होना और उसका पालन होना दोनों आवश्यक है। व्यक्ति को बोध होगा तभी व्यक्ति कर्त्तव्य पालन की दिशा में आगे बढ़ सकता है। आचार्य तुलसी ने कर्त्तव्य षड‍्त्रिंशिका में लिखा है: 'जो व्यक्ति अपने कर्तव्य को नहीं जानते उनका ऐसा अनिष्ट हो सकता है जिसकी उन्होंने शायद कल्पना भी नहीं की हो।'
हमें कर्त्तव्य को भी जानना चाहिए व अकर्त्तव्य को भी जानना चाहिए। भगवान ऋषभ ने गृहस्थ अवस्था में कितने लौकिक कार्य किए, उनका प्रशिक्षण भी दिया होगा। वे तीर्थकर बनने वाले थे, फिर भी सावद्य कार्यों का प्रवर्तन किया। इन सबके पीछे उनका कर्त्तव्य था, लौकिक अनुकंपा के कारण उन्होंने गृहस्थोचित लौकिक कर्तव्य का पालन किया।
कर्तव्य सबके अलग-अलग हो सकते हैं, पर अपने कर्तव्य के प्रति सबको जागरूक रहना चाहिए। कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विवेक होना चाहिए, इसकी अविद्यमानता में आदमी पशु समान हो जाता है। ना तो बोलना बड़ी बात है न मौन होना, बड़ी बात है बोलने और न बोलने का विवेक रखना। न खाना खाना बड़ी बात है न उपवास करना, बड़ी बात है खाने में विवेक रखना। हर कार्य में विवेक का बड़ा महत्त्व है, हम विवेक के प्रति जागरूक रहें, अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहें।
संगठन में सबके साथ मैत्री भाव रहे पर किससे क्या काम लेना है, किसको क्या कार्य सौंपना है, उसमें विवेक रहे। मैत्री अलग है, विवेक अलग है। सबके साथ समान व्यवहार भी एक सीमा तक हो सकता है, उसमें भी विवेक होना चाहिए। विवेक पूर्ण व्यवहार होना चाहिए। निष्पक्षता अलग है पर कर्त्तव्य पालन में विवेक चाहिए।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की कृति 'रहो भीतर जीयो बाहर' के अंग्रेजी अनुवाद की पुस्तक जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों द्वारा पूज्य प्रवर को अर्पित की गई।
साध्वी वीरप्रभाजी द्वारा अनुवादित इस पुस्तक 'Reside Inside Live Outside' का लोकार्पण पूज्य प्रवर के कर कमलों से हुआ। इस संदर्भ में साध्वी वीरप्रभाजी ने अपनी भावना व्यक्त की। अमेरिका से समागत रजनी जैन ने अपनी भावना अभिव्यक्त की।
समणी नियोजिका जी अमलप्रज्ञा जी ने भी अपने विचार व्यक्त किए। रेणु अरविन्द कोठारी ने अपने गीतों की श्रृंखला पूज्य प्रवर को समर्पित करते हुए प्रस्तुति दी। डॉ बलवंत ने सीपीआर ट्रेनिंग की जानकारी दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।