आत्मा की शुद्धि के लिए सम्यक पुरुषार्थ करें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मा की शुद्धि के लिए सम्यक पुरुषार्थ करें : आचार्यश्री महाश्रमण

खांब गांव, ४ मार्च, २०२४

परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी आज नागोठाणे से विहार कर खांब गांव पधारे। मंगल देशना प्रदान करते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि आदमी के भीतर गंदगी भी हो सकती है, और शुद्धता भी हो सकती है। आत्मा निर्मल भी बन सकती है तो मलिन भी बन सकती है। पुरुषार्थ शोधि के लिए भी किया जा सकता है और मलिनता के लिए भी हो सकता है। भाग्य और पुरुषार्थ दो चीजें हैं और दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हो सकती हैं। भाग्य का कारण पुरुषार्थ बन सकता है, तो कभी भाग्य नियति से भी बन सकता है। शास्त्रों में बताया गया है कि भव्य जीव मोक्ष जाने की अर्हता वाले होते हैं और अभव्य जीव में मोक्ष जाने की अर्हता नहीं होती है। जो अभव्य जीव हैं, वे कितना भी पुरुषार्थ कर लें या उनके लिए कोई दूसरा पुरुषार्थ करले परन्तु अभव्य जीव को भव्य जीव नहीं बनाया जा सकता।
पुरुषार्थ से बहुत कुछ मिल सकता है, पर सब कुछ नहीं मिल सकता। पुरुषार्थ से भाग्य का निर्माण भी हो सकता है, पर नियति को नहीं बदला जा सकता। भाग्य ज्ञातव्य हो सकता है परंतु पुरुषार्थ कर्तव्य होता है। भाग्य जैसा भी है, उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए, पुरुषार्थ करते रहना चाहिए, अच्छा कार्य करते रहना चाहिए। भाग्य भरोसे बैठने वाला, हाथ पर हाथ धरकर बैठने वाला आदमी अभागा हो सकता है। जो उद्योगी, पुरुषार्थी आदमी होता है, लक्ष्मी उसका वरण करती है। सफलता का पौधा परिश्रम के जल का सिंचन मांगता है। उपयुक्त परिश्रम सबको करना चाहिये चाहे वह छोटा हो या बड़ा। आलस्य में बैठने वाले व्यक्ति के भाग्य का देवता रूठ सकता है। व्यक्ति को परिश्रम, उद्यम और धैर्य की आवश्यकता है। कई बार परिश्रम का परिणाम जल्दी मिल जाता है तो कभी देरी से, देर भले हो पर अन्धेर नहीं होती।
हमें आत्मा की शुद्धि के लिए सम्यक्‌ पुरुषार्थ करना चाहिये। जो ऋजु-सरल होते हैं, उनकी शुद्धि हो सकती है। प्रायश्चित में आलोचन अच्छा होना चाहिये। दोषों का प्रायश्चित नहीं होता है, छल कपट करके दोषों को छुपाया जाता है तो आत्मा आयुष्य पूर्ण होने पर कुछ गंदगी साथ लेकर जा सकती है। इन दोषों, पापों की गन्दगी यहीं छूट जानी चाहिए। शुद्ध, निर्मल होकर आत्मा गति करेगी तो आगे भी अच्छा रहेगा। मृत्यु के बाद शरीर की स्नान तो लोग करवा देते हैं पर आत्मा की स्नान तो मृत्यु से पहले-पहले खुद को ही करनी होती है। आत्मा मलिन है तो आगे भी स्थान मलिन ही मिलेगा, मोक्ष मार्ग में भी रुकावट आ सकती आ सकती है। शुद्धि उसकी होती है जो ऋजुभूत होता है, सरल होता है। जो शुद्ध होता है, उसके भीतर धर्म ठहरता है। जिसके भीतर धर्म है, वह निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। हम शुद्धता को प्राप्त करने का प्रयास करें। बुरे कार्यों से बचने का प्रयास करें। अशुद्धि को प्रायश्चित-आलोयणा से दूर करने का प्रयास करें।
कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।