संथारा स्वीकार कर वीरवृत्ति का परिचय दिया
ज्ञात हुआ कि मुंबई मे ‘शासनश्री’ साध्वी सोमलता जी ने तिविहार संथारा पचखा और सीझ भी गया। उन्होंने पूर्वांचल के असम आदि सुदूर प्रांतों की यात्राएं कर धर्मसंघ की खूब प्रभावना की। संसारपक्षीय दृष्टि से गंगाशहर की होने के कारण मेरे (मुनि सुमतिकुमारजी के) मन में उनके प्रति विशेष अहोभाव था। उन्होंने संथारा स्वीकार कर जिस वीरवृत्ति का परिचय दिया, उससे सम्मान का वह भाव ओर वृद्धिंगत हो गया। वस्तुतः वे एक वीरपुत्री थी।
आदरणीया साध्वीश्री बहुत ही सौभाग्यशालिनी रही हैं। जीवन के अंतिम चातुर्मास में परम पावन श्रद्धेय आचार्यप्रवर की सेवा-उपासना का दुर्लभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। मानों आगामी यात्रा का भरपूर पाथेय पूज्यश्री द्वारा उन्हें प्राप्त हुआ है। और अब अंतिम समय में अपने संसारपक्षीय भाई महाराज उग्रविहारी तपोमूर्ति मुनि कमलकुमारजी स्वामी का सान्निध्य मिल गया। वे धन्य-धन्य हो गई, ऐसा प्रतीत होता है। मुनि कमलकुमारजी स्वामी का व्यक्तित्व, उनका आभामंडल तपोमय रहा है। मुनिश्री अपने संपर्क में आनेवाले को तपस्या के प्रति विशेष रूप से उन्मुख करते हैं। हम तो इसी संवाद की प्रतीक्षा में थे कि कब वे बहिन महाराज को अनशन पचखाएं। अब अनशनरत, संथारा-साधिका बहिन महाराज को देखकर उन्हें अपनी दिल्ली से मुंबई की प्रलंब यात्रा की सार्थकता की अनुभूति हो रही होगी। साध्वीश्री विशेष पुण्यवान थी। उन्हें जिनशासन की शरण, अर्हत्वाणी का श्रवण, भिक्षु शासन की छत्रछाया, पूज्यश्री द्वारा प्राप्त मार्गदर्शन आदि सुखद निमित्त प्राप्त थे। साध्वीश्रीजी की असाध्य बीमारी की स्थिति में भी सहवर्तियों के द्वारा जो सेवा की गई वह भिक्षु शासन की उज्जवल सेवा परंपरा की एक कड़ी बन गई। मुनि जयकुमारजी भी यहीं साथ में ही प्रवासित है। उनकी तथा हम सभी संतों की ओर से दिवंगत आत्मा के आध्यात्मिक उत्थान के प्रति मंगलकामना।