तत्त्व के प्रति यथार्थ श्रद्धा रखनी चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 13 सितंबर, 2021
महामनीषी, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि शास्त्रकार ने मिथ्यात्व के दस प्रकार प्रत्यक्त किए हैं। अधर्म में धर्म मान लेना जैसे हिंसा को धर्म मान लो। मोक्ष के संदर्भ में हिंसा करना, अहिंसा-अचौर्य नियम धर्म है, उनको अधर्म मान लेना। अमार्ग में मार्ग की संज्ञा। ये दस में पाँच युगल है। मोक्ष मार्ग हैज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है। इसके सिवाय कोई अचारित्र-अदर्शन आदि में मोक्ष मार्ग है, ऐसा मंतव्य मनन कर लें। जैसे कोई मान ले नहीं ज्ञान-दर्शन, चारित्र आदि मोक्ष मार्ग नहीं है। अजीव में जीव की संज्ञा। कोई कह दे यह पट्ट जीव है। असाधु को साधु मान ले। जो वास्तव में साधु नहीं है, उसको साधु मान लेना। जहाँ परिग्रह हिंसा जिसके जीवन में है, वो असाधु है। साधु को असाधु मानना जो स्नान नहीं करते, संतान पैदा नहीं करते वे क्या साधु हैं? अमुक्त में मुक्त की संज्ञा। जो मोक्ष में गए नहीं हैं, अमुक्त हैं, उनको मुक्त मान लेना। मुक्त को अमुक्त मान लेना। जो मुक्त हो मोक्ष में चले गए हैं, उनके लिए कह देना कि मुक्ति आदि कुछ नहीं है, मैं नहीं मानता। ये मिथ्यात्व सम्यक्त्व के संदर्भ में आयाम है। यथार्थ से विपरीत मान्यता मिथ्यात्व हो जाती है। देव, गुरु, धर्म के संदर्भ में भी बात आती है। अदेव में देव की संज्ञा कर ले धर्म की दृष्टि से तो वो उसको धर्म की दृष्टि वाला देव मान ले। अदेव में देव बुद्धि मिथ्यात्व हो गई। जो गुरु नहीं है, साधु नहीं है, उसको जो गुरु मान लेता है। अगुरु में गुरु की मान्यता करना। ये मिथ्यात्व होता है। अध्यात्म, धर्म और व्यवहार के संदर्भ में भी यथार्थ बोध होना अच्छी बात होती है। अतत्त्व में तत्त्व की श्रद्धा, जो जैसा नहीं है, उसको वैसा मान लेना, यह मिथ्याथ्व हो जाता है। यथार्थ दृष्टिकोण है, वह आदमी का सम्यक् दृष्टिकोण होता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होना बड़ी बात है। संसार के अनंत प्राणी प्रथम गुणस्थान में विद्यमान है। संसार में अनंत जीव चौदह गुणस्थानों से ऊपर उठ चुके हैं। ऐसे भी मनुष्य हैं, जो छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान में रहते हैं, रह सकते हैं। पंचम गुणस्थान तो मनुष्य और तिर्यंच पंचेंद्रिय में होता है। पशु भी श्रावक बन सकते हैं। देव और नारक चार गुणस्थानों से आगे नहीं बढ़ सकते। प्राणियों के लिए मूल बात है कि मिथ्यात्व से उठकर सम्यक्त्व की भूमिका पर आरूढ़ हो। सम्यक्त्व चारित्र के बिना भी हो सकता है, पर चारित्र सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकता। सम्यक्त्व बड़ा रत्न है, इसके बिना चारित्र भी नहीं आ सकता। जिनको दोनों प्राप्त हो जाए, उनका तो कहना ही क्या? अभव्य जीव भी ऊपरी तौर पर आचार का पालन कर लेता है, पर सम्यक्त्वहीन है, उसमें शुद्ध चारित्रात्मा ही नहीं है। अभव्य जीव कोई अच्छी क्रिया करता है, उसको भी फल मिलता है। नव ग्रैवेयक तक अभव्य जीव जाकर पैदा हो सकता है। श्रावक बारहवें देवलोक से ऊपर पैदा नहीं होता है। अभव्य जीव साधु संस्था में चला जाता है। कईयों को दीक्षा दे देते हैं। पर खुद का कल्याण उस रूप में नहीं होता जो भव्य संसारी प्राणी करते हैं। मिथ्यात्व ऐसी चीज है कि जिससे कई जीव सम्यक्त्व को प्राप्त होते ही नहीं।
मुख्य नियोजिका जी ने सम्यग दर्शन के महत्त्व बताते हुए कहा कि जिसमें सम्यक् ज्ञान नहीं है, वह ज्ञानी नहीं है। अज्ञानी सम्यक्त्व से ज्ञानी बन जाता है। ईसा मसीह और अंधे व्यक्ति के दृष्टांत से समझाया। सम्यक् ज्ञान को मोक्ष का कारण बताया गया है। हम अज्ञान से ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ें। साध्वी निधिप्रभा जी ने सुमधुर गीत की प्रस्तुति दी। उपासक श्रेणी प्राध्यापक उपासक निर्मल कुमार नौलखा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।