अध्यात्म की साधना जो भी करेगा वो तरेगा : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अध्यात्म की साधना जो भी करेगा वो तरेगा : आचार्यश्री महाश्रमण

युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी आज कड़ा से आष्टी पधारे। मंगल पुरुष ने मंगल प्रवचन में फरमाया कि आदमी शांति से जीना चाहता है, शान्ति में रहना चाहता है। मन की शांति हमें अच्छी लगती है। सुविधा और शांति दो बातें होती हैं। बाह्य संसाधनों से आदमी को सुविधा मिल सकती है, परन्तु मानसिक शांति मिल ही जाए यह कहना कठिन है। भीतरी शांति के लिए साधना की आवश्यकता होती है। साधु के पास साधना का बल है तो वह भीतर में शांति का अनुभव कर सकता है। शास्त्र में कहा गया है कि जितने भी बुद्ध-तीर्थंकर अतीत में हुए हैं और जितने भी भविष्य में होगें उन सबका आधार शांति है। जैसे प्राणियों का आधार पृथ्वी है वैसे ही तीर्थंकर शांति पर अवस्थित होते हैं। बुद्ध होने का अर्थ केवल ज्ञान संपन्न होना है, केवल ज्ञान होने से ही तीर्थंकर बना जा सकता है। जिसका मोहनीय कर्म क्षीण हो जाये उसी व्यक्ति को केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त होता है। मोहनीय कर्म शान्ति में बाधक है, जिसने मोहनीय कर्म क्षीण कर लिया उसे भीतर की पूर्ण शांति मिल जाती है।
उन जिनों को नमस्कार किया गया है, जिन्होंने भय को जीत लिया। शांति की प्राप्ति में भय भी एक बाधा है। जहां परिग्रह है, वहां भय हो सकता है। गुस्सा भी अशांति का निमित्त बन सकता है। हमें आवेश से दूर रहना चाहिए। चिन्ता नहीं चिन्तन करो, दिमाग को हल्का रखो। चिन्ता चिता के समान है, चिता निर्जीव को जलाती है, चिन्ता सजीव को भी जला देती है। लोभ की चेतना और अधिक लालसा से भी आदमी को बचने का प्रयास करना चाहिए। गुस्सा, लोभ, भय, चिंता इन सबसे मुक्त रहकर अध्यात्म, अपरिग्रह, अक्रोध, अभय और निश्चिंतता की साधना करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
हम भगवान महावीर के जैन शासन से जुड़े‌ हुए हैं। जैन शासन में समता, अहिंसा, संयम और तप जैसी ऊंची बातें प्राप्त हैं, हम इनको जीवन में उतारने का प्रयास करें। समता की साधना करें, इन्द्रिय संयम रखें। तप का आराधन करें तो हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं। सोलहवें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ के जप से भी शान्ति मिल सकती है। हम गहरी शांति में उतरने का प्रयास करें, हमारा कषाय क्षीण हो। अध्यात्म की साधना जो भी करेगा वो तरेगा। शास्त्र में कहा गया कि अन्य लिंगी और गृह लिंगी भी सिद्ध हो सकते हैं।
सिद्ध होने के लिए वीतराग‌ता जरूरी है, केवल ज्ञान, केवल दर्शन का होना जरूरी है फिर चाहे वे किसी देश में या किसी वेश में हो। कषायों की मुक्ति ही सही अर्थ में मुक्ति है। श्रमण संघ की साध्वी नमिताजी ने पूज्यवर के स्वागत में अपनी भावना अभिव्यक्त करते हुए कहा कि कुंभ मेले में तो तन की सफाई होती है पर आज यहां आचार्य श्री महाश्रमण जी के सान्निध्य में मन को पवित्र और निर्मल बनाने का मेला है। आज विश्व की महान विरल विभुति आचार्य प्रवर के दर्शन करने का लाभ प्राप्त हुआ। ब्रह्म कुमारी सुशीला जी ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्य प्रवर के स्वागत में स्कूल के अध्यक्ष आमदार जीव राज ढोंढे, जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष सुखलाल मुथा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। जैन महिला मंडल एवं प्राची बोगावत ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।