संकल्प का प्रयोग
भाव-अभिग्रह- हंसता हुआ, रोता हुआ, बेड़ियों से बंधा हुआ– इस प्रकार का दाता मुझे भिक्षा देगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं।
इस संदर्भ में भगवान महावीर का वह दुष्फल अभिग्रह मननीय है। साधनाकाल के बारहवें वर्ष में भगवान ने संकल्प किया- ''मैं दासी बनी हुई राजकुमारी के हाथ से ही भिक्षा लूंगा, जिसका सिर मुंडा हुआ हो, हाथ-पैरों में बेड़ियां हों, तीन दिन की भूखी हो और आंखों में आंसू हों जो देहली के बीच में खड़ी हों और जिसके सामने सूप के कोने में उबले हुए थोड़े से उड़द पड़े हों आदि।''
महावीर भिक्षा के लिए जाते, पर भिक्षा लिये बिना ही लौट आते। पांच महीने और पच्चीस दिन निकल गए। छब्बीसवें दिन उनका अभिग्रह फला, उन्होंने चन्दना के हाथ से भिक्षा ग्रहण की।
प्रयोजन
यह तप आशा, लालसा को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। विभिन्न प्रयोगों से अपने मन और शरीर को साधा जाता है।
भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति के पच्चीसवें शतक में उत्क्षिप्त, निक्षिप्त आदि अनेक प्रकार के अभिग्रहों का उल्लेख है।
भिक्षा के सिवाय भी अभिग्रह का प्रयोग किया जाता है। अनेक तपस्वी लोग भी अभिग्रह करते हैं। अमुक स्थिति निष्पन्न होने पर ही मैं पारणा करूंगा, अन्यथा नहीं। साधना के अन्य विभिन्न अनुष्ठानों में भी यह प्रयुक्त हो सकता है।
राजा अध्यात्म साधना का प्रयोग कर रहा था। उसने अभिग्रह किया कि मैं तब तक साधना करता रहूंगा जब तक यह दीया जलता रहेगा। कुछ समय बाद दीया बुझने की स्थिति में आ रहा था कि दासी ने सोचा दीया बुझ न जाए, उसने उसमें और तेल डाल दिया। राजा ने अपनी साधना जारी रखी। फिर जब दीया बुझने लगा, दासी ने पुनः उसमें तेल डाल दिया। इस प्रकार दासी तेल डालती गई और राजा की साधना लम्बायमान होती गई।
संकल्प-शक्ति के विकास के अनेक प्रयोग हैं। उनमें अभिग्रह को भी एक माना जा सकता है। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी कुछ अभिग्रह स्वीकार कर लिए जाते हैं तो उनसे संकट निवारण और चेतना-जागरण दोनों को बहुधा प्राप्त किया जा सकता है।
स्वाद-विजय का प्रयोग
अध्यात्म-साधना का केन्द्रीय तत्त्व है अनासक्ति। जिस व्यक्ति में अनासक्ति का जितना विकास होता है, वह उतना ही आध्यात्मिक बन जाता है। यदि आसक्ति क्षीण हो जाती है तो फिर क्रोध, मान और माया टिक नहीं सकते। आसक्ति का संबंध लोभ कषाय से है।
अध्यात्म के बाधक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक शब्द है कषाय। उसे दो शब्दों के द्वारा अभिव्यक्ति दी जाए तो वे होंगे- राग और द्वेष। उसे चार शब्दों में विश्लेषित किया जाए तो वे होंगे क्रोध, मान, माया और लोभ। इनमें प्रधान लोभ है। यह दसवें गुणस्थान तक बना रहता है। कध, मान और माया नवें गुणस्थान में ही सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि लोभ सबसे अधिक दुर्जय है।
मोहनीय कर्म को आठ कर्मों में राजा कहा जाता है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म की विभिन्न कृतियों में लोभ को राजा कहा जा सकता है। उसे मोह-परिवार का मुखिया भी कहा जा सकता है। क्रोध और मान द्वेष के तथा माया और लोभ-राग के अंगभूत हैं। देष राग का उपजीवी होता है। राग के बिना वह हो ही नहीं सकता। इसलिए रागविजय पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना अपेक्षित होता है।
राग-विजय और आसक्ति-विजय के अनेक प्रकार हैं। जितने आसक्ति के प्रकार हैं, उतने ही आसक्ति-विजय
के प्रकार हैं। संक्षेप में आसक्ति के पांच प्रकार हैं- शब्द आसक्ति, रूप आसक्ति, गंध-आसक्ति, रस-आसक्ति और स्पर्श-आसक्ति। इन्द्रिय विषयों का सर्वथा अप्रयोग संभव नहीं है। किन्तु उनमें आसक्ति का न होना साधक का लक्ष्य होता है।