दुर्लभ मानव जीवन में धर्म को नहीं छोड़ें : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

दुर्लभ मानव जीवन में धर्म को नहीं छोड़ें : आचार्यश्री महाश्रमण


पंच दिवसीय औरंगाबाद का पावन प्रवास संपन्न कर अध्यात्म के महासूर्य आचार्य श्री महाश्रमण जी अपनी धवल सेना के साथ जालना की ओर विहार करते हुए वरुलका जी चिकलथान पधारे। पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए परम पावन आचार्य प्रवर ने परमाया कि आदमी अकेला जन्म लेता है, और अकेला ही एक दिन अवसान को प्राप्त हो जाता है। व्यवहार में 2-3 साथ में भी आ सकते हैं, जा सकते हैं। भले दो साथ में जन्म जाएं पर दोनों की प्रकृति, शारीरिक स्वास्थ्य में अन्तर अपने-अपने कर्मों के हिसाब से हो सकता है। अकेला आना और अकेला जाना ये मानो हमारी सृष्टि का क्रम सा है। अपने कर्म स्वयं को भोगने पड़ते हैं। ज्ञातिजन, मित्रवर्ग, बेटे, भाई हैं पर एक आदमी कर्मों के योग से तकलीफ पा रहा है, सब पास में खड़े हैं पर वे वेदना को बांट नहीं पाते हैं।
हम अकेले हैं और हमें अभी मानव जीवन प्राप्त हैं। मानव जीवन को दुर्लभ बताया गया है, पर वह दुर्लभ अभी हमें सुलभ है। हम इस मानव जीवन का बढ़िया उपयोग कर आत्मा का कल्याण करने का कार्य करें। इस दुर्लभ मानव जीवन में जो धर्म को प्राप्त कर उसे वापस छोड़ देते हैं, वह आदमी अपने घर में कल्पवृक्ष को उखाड़ कर धतुरे के पौधे को लगाता है, चिन्तामणी रत्न मिल गया उसे नदी में फेंक कर कांच का टुकड़ा जेब में डालता है, श्रेष्ठ गजराज को बेचकर गधा खरीद लेते है। यह नासमझी की बात हो जाती है कि धर्म को छोड़कर लोग भोगों की तरफ दौड़ते हैं। कुछ विपत्ति-कठिनाई आ जाये पर आदमी को धर्म नहीं छोड़ना चाहिये। विपत्ति तो हमारे अशुभ कर्मों से आ सकती है, पर कभी-कभी धर्म की परीक्षा भी होती है, कि हम धर्म में कितने मजबूत हैं। विपत्ति हो या संपत्ति, धर्म को नहीं छोड़ना चाहिये। धर्म तो भव-भव में आत्मा का कल्याण कराने वाला, मुक्ति दिलाने वाला होता है। धर्म को छोड़े देंगें तो फिर हमारे पास बचेगा क्या? क्या हमें पाप की पोटली लेकर आगे जाना है? विपत्ति में समता रखें ताकि कर्म निर्जरा हो सके। कठिनाई तो बड़े- बड़े महापुरुषों के जीवन में आ सकती है, आई है।
कठिनाई को हम कर्म निर्जरा का साधन बना लें, शांति-धैर्य रखें।
जिनकल्पी साधु तो कष्ट को उदीर कर ले लेते हैं। जयाचार्य ने आराधना की ढाल में लिखा है-
जिन कल्पिक साधु, लियै कष्ट उदीरो रे।
तो आव्यां उदय, किम थाय अधीरो रे? भावै भावना।।
हमारे तो सहज में कष्ट आ गया तो सहन करें। कष्ट आने पर धर्म को न छोड़ें। धर्म देव हमेशा हमारे पास रहे। अहिंसा, संयम और तप धर्म है, इससे आत्मा का कल्याण करें। धन तो इस जीवन तक है, धर्म तो आगे भी साथ जाने वाला है। पैसे के लिए गलत तरीके काम न लें, पाप न करें। आदमी काम अच्छा करता रहे, ताकि आत्मा का कल्याण होता रहे। हम सद्‌गति-सुगति की तरफ आगे बढ़ते रहें। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।