साझपति बने मुनि मुदितकुमार (सरदारशहर)
साध्वीप्रमुखाश्री जी आदि साध्वियां प्रातः वंदना हेतु पूज्यप्रवर के उपपात में पहुंची। वंदना के बाद साध्वीप्रमुखाश्री जी ने निवेदन किया- सतियां एक गीत गाना चाहती हैं। गीत की एक प्रति पूज्यप्रवर के हस्त कमल में दे दी। ऐसा लगा उसे देखकर आचार्यश्री को हर्ष हो रहा था। गीत के बोल इस प्रकार हैं-
साझ बणायो रे।
हां कै, साझ बणायो रे म्हारै मुदित मुनि रो साझ बणायो रे।।
चौथ वैशाखी दो हजार तैंयाली रो शुभ दिन आयो,
ब्यावर तेरापंथ भवन इतिहास सुहायो रे।
अर्हत् वंदन बाद प्रभुवर ध्यान साधनालीन बण्या,
सुण्यो शब्द गोष्ठी रो मनड़ो प्रश्न उठायो रे।।
इं गोष्ठी में गुरुवर कांई म्हारो साझ बणासी के?
सहज सरल आत्मा भावी आभास करायो रे।
साझपति री करो वन्दना गुरुवर तुलसी फरमायो,
ऋषभ मुनि धर्मेश मुनि रो भाग्य सवायो रे।।
मन में घणी खुशी ही प्रभु रे पाणी संत पिलासी रे।
भाणो होसी अब तो म्हारो मन हरसायो रे।।
पूछ-पूछकर काम करसी मन हरसायो रे।।
साझपति अब शासनस्वामी साझ दियो देता रहिज्यो,
बडै भाग स्यूं पायो शीतल सुखकर सायो रे।।
(तर्जः होली आई रे)
गीत की परिसम्पन्नता के बाद :
पूज्यप्रवर ने फरमाया - आज के दिन ही साझ बनाया गया था।
साध्वीप्रमुखाश्रीजी- ऋषभ कुमारजी स्वामी बहुत भाग्यशाली हैं। इनको दीक्षा लेते ही पूज्यप्रवर के साथ दे दिया। 38 वर्षों से रात-दिन साथ रहते हैं। ऐसे बहुत कम व्यक्ति होते हैं जिन्हें ऐसा दुर्लभ अवसर मिलता है। पूज्यप्रवर! साझपति बनाने पर आपको बहुत खुशी हुई थी कि संत मुझे पानी पिलाएंगे...
आचार्य प्रवर - हां ! मुझे अतिरिक्त प्रसन्नता हुई थी।
साध्वीप्रमुखाश्रीजी - अब तो गुरुदेव को कोई पानी पिलाता है तो गुरुदेव सोचते हैं कि मेरे लिए इसे कोई कष्ट न हो।
आचार्य प्रवर - उस समय मेरी उम्र छोटी थी। लगभग 24 वर्ष पूरे होने वाले थे। गुरुदेव तुलसी कितना ध्यान देते थे कि किसका साझ बनाना है आदि।
सुमतिप्रभाजी - आचार्य प्रवर को तो पहले ही ध्यान में आभास हो गया था।
आचार्य प्रवर - हां। उस समय मुझे दोनों (ऋषभमुनि, धर्मेशमुनि) छोटे संत दिए थे। कोई बड़ी उम्र वाला नहीं था।
सुमतिप्रभाजी - कई-कई व्यक्ति इतने उपयोगी निकल जाते हैं कि पूरे संघ को निश्चित कर देते हैं।
साध्वीवर्याजी - पहले तो गुरुदेव तुलसी को चिंता थी कि यह कैसे काम करेगा।
सुमतिप्रभाजी - साझपति से पहले आपको अन्तरंग सहयोगी बना दिया था।
आचार्य प्रवर - साझ से बड़ी बात तो यह है। साझ तो औरों का भी बनता है पर वैसा निर्णय तो किसी-किसी का ही होता है।
साध्वी वर्याजी- गुरुदेव तुलसी ने फरमाया था कि ऊपर जाकर भी देखूंगा।
आचार्य प्रवर- उस दिन गुरुदेव जमीन पर ही विराजे हुए थे। मैं भी वहीं था साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी भी वहीं थे। हम दोनों को महत्वपूर्ण सेवा कराई थी। फिर फरमाया था कि ऊपर जाकर भी देखूंगा।
कीर्ति कुमारजी -ऐसा लगता भी है कि गुरुदेव ऊपर से देखते हैं।
आचार्य प्रवर- ऐसा लगता है क्या?
कीर्ति कुमार जी - तहत्।
साध्वीप्रमुखाश्रीजी- आचार्य प्रवर ने दीक्षा लेते ही 12 साल तक विशेष ध्यान साधना की। ऐसा लगता है उसका फल यहीं मिलने लग गया। उस साधना से आपने बहुत सारी पुण्याई अर्जित की है।
आचार्य प्रवर - उन 12 वर्षों में ज्यादा समय अध्ययन, स्वाध्याय, सीखना आदि में बीता। संस्कृत के ग्रंथ पढ़े। मैंने कालूकौमुदी को वृत्ति सहित याद किया। भिक्षुशब्दानुशासनम् को प्रायः कंठस्थ किया, सात अध्ययन पूरे व 8वें का भी कुछ-कुछ याद किया। संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया और ध्यान-साधना में समय लगाया।
साध्वी वर्याजी- आचार्य प्रवर ने उस दौरान थोड़ी सेवा भी की थी। धर्मरुचि जी स्वामी की सेवा में आप रहे।
आचार्य प्रवर- पहले मैं मधुकरजी स्वामी के पास रहा। फिर 3 साल तक रूपचंदजी स्वामी के पास रहा। वहां टाबर संतों में मैं ही था। वहां पर कूंडा, बाल्टी लाना, प्रथम प्रहर में दूर गोचरी जाना, पानी लाना, परिष्ठापन करना आदि काम करता था।
साध्वीप्रमुखाश्रीजी- क्या आचार्य प्रवर उपदेश भी देते थे?
आचार्य प्रवर- जोधपुर चतुर्मास में गुरुदेव ने फरमाया था कि मेरे से पहले तुम उपदेश दे दिया करो। न्यारा मैं भी थोड़ा बोलता था, ढाल गाता था।
दिनेश कुमारजी स्वामी- जोधपुर में वहां के मिश्रीमलजी भंसाली ने भी आपके लिए कहा था कि ये संघ के भविष्य बनेंगे।
आचार्य प्रवर- युवाचार्य महाप्रज्ञजी अध्ययन करवाते थे। उसमें मैं भी एक था। 12 सालों में गुरुदेव के पास कालूयशोविलास आदि की रागें सीखी। कई सतियां आती थी। शारदाश्रीजी आदि भी आती थी। मैं भी रागें सीखता था। लेख लिखता था। उस समय सन्तों में एक पाठ्यक्रम चलता था। उसका व्यवस्थापक मैं था। सतियों में शायद जिनप्रभाजी थे। उस समय युवाचार्य महाप्रज्ञजी ने व्यवस्थित अध्ययन शुरु करवाया। हमने सबसे पहला ग्रन्थ पढ़ा 'ज्ञान बिन्दु प्रकरण'। उसमें साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी भी आते और भी सन्त-सतियां, समणीजी भी आते। उस दौरान प्रमाण मीमांसा, प्रमाणनय तत्त्वालंकार, शांत सुधारस, सन्मति तर्क प्रकरण की टीका, अध्यात्मोपनिषद् का अध्ययन किया। आचार्य यशोविजय जी का भी एक ग्रंथ पढ़ा था। जिसमें षड्ऋतु की बात थी और गृहस्थ के लिए अति धर्म, अति अर्थ और अति काम भी ठीक नहीं है यह भी उस ग्रंथ में था। पातंजल योग दर्शन भी पढ़ा।
साध्वीवर्याजी - (साध्वी प्रमुखाश्रीजी की ओर) क्या आप भी साथ में अध्ययन करते थे?
आचार्य प्रवर- हमेशा तो साथ में नहीं रहते थे। आप समणी थे। जब कभी लाडनूं या गुरुकुल में आते तब साथ में अध्ययन करते।
साध्वीप्रमुखाश्रीजी - आचार्य प्रवर! एक बार धर्मरुचि जी स्वामी ने फरमाया- आचार्य श्री बहुत अच्छे सेवक हैं। जिस समय मेरी सेवा की थी उस समय छोटे बच्चे थे। मेरी इतनी जागरूकता से सेवा की। जो व्यक्ति सेवा देना जानता है वही दूसरों से सेवा करवा सकता है।
इस प्रकार एक छोटा सा कार्यक्रम जैसा हो गया।