स्थितप्रज्ञता की जीवंत प्रतिमा को अनन्तशः नमन’
एक बार आइंस्टीन से पूछा गया - आपके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है ? आइंस्टीन ने एक बच्चे की तरफ इशारा करते हुए कहा- यह। फिर पूछा- आप तो बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं, किसी और उपलब्धि के बारे में बताते। आइंस्टीन- यह बालक ही मेरी उपलब्धियों को आगे बढ़ाएगा। प्रज्ञा पुरूष आचार्य श्री महाप्रज्ञ से जब सबसे बड़ी उपलब्धि के बारे में पूछा गया तो उन्होनें आगम अनुसंधान, प्रेक्षाध्यान, जीवन-विज्ञान जैसे अनेक महत्वपूर्ण अवदानों को बड़ी उपलब्धि नहीं बताया। आचार्य श्री महाश्रमण जी को जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि माना। जिज्ञासा उभर सकती है, आखिर क्यों? मुझे लगा जो गुरु के हर इंगित की आराधना में सर्वात्मना समर्पित रहता है, जो अहर्निश गुरुदृष्टि पर चलना अपना परम धर्म मानता है, जो संयम की उज्ज्वल धवल चद्दर को निर्मल निर्दाग रखता है, जो पूर्ण स्थिर योगी होकर आत्म साधना में लीन रहता है वह शिष्य गुरू की सबसे बड़ी उपलब्धि हो सकता है। महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमण जी का जीवन अनेक अनुपम विलक्षणताओं का पुंज है। रवि की तेजस्विता, चन्द्र की शीतलता, मंगल की निर्भीकता, बुध की सिद्धहस्तता, बृहस्पति की आत्मशक्ति, शुक्र की ओजस्विता, शनि की प्रतिरोधात्मकता का समवाय साक्षात् दृष्टिगत होता है। इसीलिये उन्हें न पुखराज पहनने की आवश्यकता है, न माणक धारण करने की जरूरत, न पन्ना खरीदने की आवश्यकता है न मूंगा धारण करने की। स्वयं में ही समाहित है सारे ग्रहों की शक्तियां।
इनके जीवन में न आवेश का लवलेश है, न अंह का। न लोभ का भाव है, न माया का। न चिन्ता की रेखा है, न तनाव का भार। न अनिष्ट विचार है, न कार्यभार। उनका जीवन तो पुरूषार्थ का पहरूआ है। ब्रह्मबेला से शयन तक श्रम का पहिया, कालचक्रवत् घूमता रहता है। बुलन्द है उनके भाग्य का सितारा, जिस पर शासन करता है पौरूष का ध्रुवतारा। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के शब्दों में 'महाश्रमण का भाग्य चमक रहा है।'
आचार्यश्री महाश्रमण जी की मंगलवरदायी शीतल छत्रछाया पाप, ताप, संताप का विनाश करने वाली है। वाणी सत्यनिष्ठा की कहानी है। आचार्य महाश्रमण जी तो ऊर्जा के अक्षयकोष हैं। वे इन्द्रियजयी, सहिष्णु, स्वाध्याय-ध्यान में लयलीन ध्रुवयोगी हैं। वे आत्मस्थ, तटस्थ, साम्ययोगी, स्थिरयोगी, वीतराग-प्रयोगी हैं। जयाचार्य जैसी स्थितप्रज्ञता का साक्षात् दर्शन उनके जीवन में किया जा सकता है। तेरापंथ शासन का इतिहास प्रसिद्ध प्रसंग है - जयाचार्य द्वारा पाली के बाजार में रखी स्थिरता। जिसका संक्षिप्त विवरण देते हुए गणाधिपति गुरूदेव श्री तुलसी ने आठ प्रवचन माता के अन्तर्गत ईर्या समिति का प्रशिक्षण देते हुए अपने गीत में लिखा है-
''बालवये जीत मुनि पाली रै बाजार।
नाटक नहीं देख्यो लिखतां आंख उठार।
तो क्यूं मारग में बिसारी, माता ईर्या समिति।।''
इसी प्रसंग को संस्कार बोध में भी उदृत किया है -
''पाली के बाजार का, याद करें इतिहास।
स्थिरयोगी शिशु जीत मुनि, बढ़ा विपुल विश्वास।।''
उन्हीं प्रसंगों को पुनर्जीवित किया आचार्यश्री महाश्रमण जी ने। सन् 1984 की घटना है। आचार्य श्री तुलसी का चातुर्मास सूर्यनगरी जोधपुर की धरा पर था। उस समय दिल्ली में 31 अक्टूबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का देहावसान हो गया। 2 नवम्बर को पार्थिव देह की अंत्येष्टी यात्रा का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण चल रहा था। जिसे प्रायः सबने देखा होगा पर मुनि मुदित (वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण जी) ने एक बार भी आंख उठाकर नहीं देखा। एक श्रावक वहां मौजूद था जो एकटक मुनि मुदित को देखता रहा। वास्तव में स्थितप्रज्ञता बेजोड़ थी।
ऐसे आचारनिष्ठ, अनुशासननिष्ठ, मर्यादानिष्ठ, अध्यात्मनिष्ठ, आचार्यनिष्ठ, संघनिष्ठ, संयमनिष्ठ आचार्य हैं आचार्यश्री महाश्रमणजी। आचार्यश्री महाश्रमण जी की अनेक विशेषताओं का समय-समय पर उल्लेख करते हुए आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने अनेक बार फ़रमाया- ''महाश्रमण हमेशा संघीय दृष्टि से सोचता है। इसमें समर्पण और करूणा का भाव है। हमने महाश्रमण को अनेकों बार अनेक कसौटियों पर कसा, जिनमें वह स्वर्ण की भांति निखर कर सामने आया। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूं कि मुझे ऐसा उत्तराधिकारी मिला। आचार्य महाश्रमण को युवा मनीषी कहें या नहीं पर महातपस्वी जरूर कहें। महाश्रमण का इन्द्रिय संयम अनुत्तर है, आहार संयम अनुत्तर है, सहनशीलता अनुत्तर है, वाणी संयम और चक्षु संयम अनुत्तर है। अंतरंग तप की दृष्टि से महाश्रमण से बड़ा
तपस्वी पूरे धर्म संघ में मुझे कोई दिखाई नहीं देता है।''
कहते हैं जिसके जीवन में उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम इन छह सूत्रों का संगम हो उसकी देवता भी सहायता करता है। लगता है आचार्यश्री महाश्रमण जी की सेवा में देवशक्ति अहर्निश नतशीष रहती है। आचार्यश्री महाश्रमणजी के जीवन को गहराई से देखने पर लगता है साधुता आपकी आत्मा है। संघीय मर्यादा, गुरू आज्ञा, आगम-आणा साधना की मूल्यवत्ता है और कर्म में अप्रमत्तता है। आचार्यश्री महाश्रमण जी के उदात्त जीवन की भविष्यवाणी बचपन में ही हो गयी थी। मैंने पढ़ा एक बार एक रेखा शास्त्री, छगन मिश्रा मुनि श्री सुमेरमल जी स्वामी (लाडनूं) के पास आया। उनके हाथ पैर की रेखाएँ देखकर कहा आप दो बालकों को छः महीने के भीतर दीक्षा दोगे। फिर बालक मोहन की हाथ पैर की रेखाएँ देखकर कहा- यह बालक आपकी विद्यमानता में ही आपके धर्मसंघ का सर्वोपरि स्थान प्राप्त कर लेगा। इस भविष्यवाणी की सच्चाई आज सबके सामने है। ऐसे ही एक बार सरदारशहर के बिरधीचंद नाहटा ने बालक मोहन की हस्तरेखा देखकर कहा- इसके हाथ में तो देव रेखा है, जो विरले व्यक्तियों के हाथ में होती है। आप श्री की दीक्षा स्वर्णजयन्ती हम सबके लिये खुशियों का सुन्दर साज लेकर आई है। हम यह संकल्प करती हैं कि इस माध्यम से हम भी अपने संयम पर्यायों को निर्मल से निर्मलतम बनाते रहे।
इस अवसर पर पूरा धर्मसंघ चाहता है कि आचार्यश्री महाश्रमणजी अतीत की सारी परम्पराओं, आदर्शों, सिद्धान्तों और मर्यादाओं को संरक्षण देते हुए अपने मौलिक चिन्तन, ऊर्जस्वल कार्य क्षमता और दूरदर्शी निर्णयों से नये-नये कीर्तिमान गढ़ते रहें। उनकी वरदायी बरगदी छांव तले चतुर्विध संघ निश्चिंतता, निर्भारता का अनुभव करता रहे। पुनः पुनः चिर आयुष्य, चिर आरोग्य और चिर शासना की अनन्तशः शुभकामना।