ज्ञान के साथ संस्कार जुड़ने से प्राप्त हो सकती है परिपूर्णता : आचार्यश्री महाश्रमण
हमारे भीतर अनन्त ज्ञान है, ज्ञान का कोई आर-पार नहीं है।
धर्म दिवाकर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि आदमी के जीवन में ज्ञान का बहुत महत्त्व है। ज्ञान के अभाव में एक अंधकार सा रहता है। ज्ञान एक प्रकाश है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को आवृत करने वाला होता है। हमारे भीतर अनन्त ज्ञान है, ज्ञान का कोई आर-पार नहीं है। कोई-कोई मनुष्य जो साधना के द्वारा सर्वज्ञ बन जाते हैं उनका ज्ञानावरणीय कर्म पूर्णतया नष्ट हो जाता है। विद्यालय में ज्ञान देने का और ज्ञान लेने का प्रयास होता है। अध्यापक और विधार्थी दोनों ज्ञान की आराधना करने वाले होते हैं। अध्यापक का ज्ञान तेजस्वी होगा तो विधार्थी में तेजस्वी ज्ञान का संचार हो सकता है। विधार्थी भी प्रतिभा से ज्ञान के क्षेत्र में नयी-नयी खोज कर सकते हैं।
ज्ञान के साथ आचार, संस्कार, व्यवहार यह भी एक जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। कोरा ज्ञान अधूरा है, ज्ञान के साथ संस्कार जुड़ जाए तो इस संदर्भ में परिपूर्णता प्राप्त हो सकती है। बच्चे ही आगे चलकर महापुरुष के रूप में सामने आते हैं। ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है यह सूत्र जीवनगत, आत्मगत, व्यवहारगत और आचरणगत हो जाए तो यह ज्यादा हितकर हो सकता है। पूज्यप्रवर का प्रवास विवेकानंद आश्रम में हो रहा था। आश्रम के सन्दर्भ में पूज्य प्रवर ने फ़रमाया - यहां ज्ञान-साधना का अच्छा क्रम चलता रहे। बच्चों में अच्छे संस्कार भी रहें। योग-ध्यान के प्रयोग भी चलते रहें। धार्मिक-आध्यात्मिक माहौल की स्थिति विकसित होती रहे। मुनि आलोक कुमार जी ने पूज्यप्रवर से मंगलपाठ सुन मंगल आशीर्वाद एवं प्रेरणा प्राप्त कर घोषित चतुर्मास क्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। पूज्यवर के स्वागत में विवेकानंद आश्रम की ओर से अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया। आश्रम की ओर से मासोतर सोनी ने स्वागत गीत का संगान किया। आश्रम से संबद्ध हेमलता, संतोष गोरे ने अपनी अभिव्यक्ति दी। नहार परिवार ने समूह गीत से, अधिकार मरलेचा, भविष्या मरलेचा, सुनील नहार एवं अनिल नहार ने अपने भावों की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।