शाश्वत और पवित्र सुख पाने के लिए करें आत्म युद्ध : आचार्यश्री महाश्रमण
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी का अपनी धवल सेना के साथ अमलनेर पदार्पण हुआ। उपस्थित जनमेदिनी को अमल-विमल बनाते हुए परम पावन ने मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि धर्मशास्त्र में धर्म युद्ध की बात आती है। दुनिया में कभी-कभी युद्ध हो जाता है। धर्मशास्त्र में जो युद्ध की बात बतायी गयी है, वह अध्यात्म युद्ध की बात है। शास्त्रकार ने कहा कि बाहर के युद्ध की क्या बात है, अपने आपसे युद्ध करो। अपने आपको जीतकर आदमी सुख को प्राप्त हो जाता है।
युद्ध क्यों करें, किससे करें और कैसे करें? आत्म युद्ध करने से सुख मिल सकता है, शाश्वत और पवित्र सुख मिल सकता है। विषय भोग और इन्द्रियों के सुख क्षणमात्र सुख देने वाले होते हैं। थोड़ी देर का सुख आगे के लिए दुःख का कारण बन सकता है। युद्ध अपने से करो, अपने आप से लड़ो। नमस्कार महामंत्र के 'णमो अरिहंताणं' पद में अरि अर्थात् शत्रुओं का नाश करने वाला होता है, वे शत्रु कर्म और कषाय शत्रु होते हैं।
अपनी आत्मा के साथ युद्ध करें। आठ आत्माएं बताई गई हैं, उसमें से कषाय आत्मा, अशुभ योग आत्मा और मिथ्यादर्शन आत्मा के साथ युद्ध करें। हमारे वास्तविक दुश्मन तो हमारे भीतर ही है। बाहरी दुश्मन तो बहुत थोड़े हैं, निमित्त मात्र हैं। उपादान रूप में और ज्यादा नुकसान करने वाले शत्रु तो हमारे भीतर ही हैं। मोहनीय कर्म और कषायों को जीतने का हम प्रयास करें। कषाय है तो अशुभ योग है। मिथ्यादर्शन भी मोहनीय कर्म का ही एक अंग है।
युद्ध करने के लिए शस्त्र हमारे पास हैं या नहीं? शस्त्र है तो फिर चोट कहां लगाना। इसके लिए बाहर के शस्त्रों की अपेक्षा नहीं है। आत्मयुद्ध के लिए हमारा शस्त्र है उपशम। गुस्से को खत्म करने के लिए उपशम की अपेक्षा है। अहंकार को जीतने के लिए मृदुता का प्रयोग करें। माया को जीतने के लिए सरलता, ऋजुता का प्रयोग करें और लोभ को जीतने के लिए संतोष का प्रयोग करें।
भीतर के जो हमारे सात्विक गुण क्षमा, उपशय, मार्दव, आर्जव, संतोष इनके द्वारा हम धर्म युद्ध में विजेता बन सकते हैं और आत्मरिपुओं को जीत भी सकते हैं।
हमारे भीतर सुख का बड़ा सागर लहरा रहा है। उसमें हम डुबकियां लगाने के लिए अध्यात्म की गहराई में जा सकें तो आत्मिक सुख के खजाने को प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। भीतर के शत्रुओं पर अच्छी तरह चोट करें। चोट कहां करना यह ज्ञान होना भी अपने आपमें बड़ी महत्वपूर्ण बात है। चोट ज्यादा मोहनीय कर्म के परिवार के सदस्यों पर लगायें और अध्यात्म युद्ध में सफलता प्राप्त करने का प्रयास करें। जहां उचित हो वहां झुकें। हमारे आराध्य हैं, गुरु हैं, माता-पिता हैं, वहां झुकें पर हर जगह झुकना जरूरी नहीं। जहां हमारे पूजनीय है, वहां हम झुक सकते हैं।
'तुम आओ डग एक तो, हम आऐं डग अठ।
तुम हमसे करड़े रहो, तो हम हैं करड़े लठ।'
फालतू लड़ाई-झगड़ा किसी से न करें। खुद शान्ति से रहें और दूसरों को शांति से रहने दें। अध्यात्म की दृष्टि से खुद जागें और दूसरों को जगाएं। हमारे भीतर अहिंसा की भावना रहे। विरोध करने वाले के प्रति भी मंगल भावना रहे। शत्रु के प्रति भी मैत्री का भाव रहे। बीस वर्षों बाद अमलनेर आना हुआ है। मुनि भरतकुमारजी यहां के लोढ़ा परिवार से हैं। साध्वी प्रबलयशाजी भी लाडनूं चाकरी करके आई हैं। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने मंगल उद्बोधन में कहा कि हिन्दी शब्दकोष में दो शब्द विशेष है- गुरु और परमात्मा। दोनों में भी महत्वपूर्ण शब्द गुरु है। हमें परमात्मा तक पहुंचना है तो उसके पथदर्शक गुरु ही होते हैं। गुरु के द्वारा बताये उपायों द्वारा हम परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। जो हमारे मिथ्यात्व को नष्ट करता है और हमारे सम्यक् दर्शन का पथ प्रशस्त करता है, पुण्य-पाप को स्पष्ट करता है, वह गुरु होता है। गुरु संसार-सागर पार कराने वाले होते हैं। साध्वी प्रबलयशाजी ने श्रीचरणों अपनी भावना अभिव्यक्त कर सामूहिक गीत की प्रस्तुति दी। पूज्यवर के स्वागत में सभाध्यक्ष राजेश वेदमुथा, प्रतीक लोढ़ा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। तेरापंथ महिला मंडल गीत एवं सकल जैन महिला मंडल ने गीत का संगान कर अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।