संतता की एक नजीर : 'शासनश्री' मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी (लाछुड़ा)
मेरे संयम जीवन के प्रेरणास्रोत, अलबेले साधक, भद्रिक संत, कर्मठ व्यक्तित्व प्रबल पुरुषार्थी, श्रमसीकरों के पथिक, संतता की जीती जागती नजीर मेरे संसार पक्षीय चौरड़िया परिवार में बड़े पिताजी, लाछुड़ा के गौरव 'शासनश्री' मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी का देवलोक गमन हो गया है। वे गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के पावन कर कमलों से माघ शुक्ला सप्तमी वि. सं. 2002 में सरदारशहर में दीक्षित हुए, आचार्यश्री महाप्रज्ञजी और आचार्यश्री महाश्रमणजी आदि तीनों गुरुओं के विश्वस्त कृपापात्र संत थे। वह शिष्य धन्य होता है जो आचार्यों के दिल में विशिष्ट स्थान बना लेता है। 'शासनश्री' मुनिश्री हर्षलालजी स्वामी इसी के पर्याय थे।
विनयो नाम शिष्याणां, वात्सल्यंच गुरोरअपि।
यत्र योग्यं प्रकुर्वाते, तत्र हार्दं समर्पणम्।।
जिसका जीवन सदैव ही गुरू चरणों में सहज समर्पित है उस पर गुरू का अनुग्रह अकल्पित बरसता है और उसे गुरू का प्रसाद जीवन भर प्राप्त होता रहता है। आपके समर्पण, अनुशासन, आचारनिष्ठा और प्रखर प्रतिभा का मूल्यांकन करते हुए 11 जून 2012 पचपदरा में आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आपको 'शासनश्री' सम्बोधन से संबोधित किया।
'शासनश्री' मुनिश्री राकेशकुमारजी स्वामी के अनन्य सहयोगी संत के रूप में 30 वर्षों तक उनकी सन्निधि में साधना रत रहे। उनके साथ रहते हुए ही आपश्री को माघ शुक्ला तृतीया वि. सं. 2045 छापर में आचार्यश्री तुलसी ने अग्रगण्य की वंदना करवाई। कुछ चातुमार्स संयुक्त रूप में भी हुए। 'शासनश्री' मुनिश्री राकेशकुमारजी स्वामी अपना परम सौभाग्य मानते थे कि उन्हें मुनि हर्षलाल जैसा विनीत समर्पित साधु मिला। एक बार का प्रसंग है- गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी की सन्निधि में तारानगर मर्यादा महोत्सव पर सभी साधु-साध्वियों की संगोष्ठी में आचार्यश्री तुलसी ने मुनिश्री हर्षलाल जी स्वामी के लिए फरमाया- मुनि हर्षलाल ऐसा संत है जो बाबू का बाबू और हाली का हाली है। बहुत ही भद्रिक साधु है, सहज एवं सरल है। अभी इनको मुनि राकेशकुमारजी की सेवा में दिल्ली भेजना है, वे अभी अत्यधिक अस्वस्थ हैं। इनको भेजने से उनको बहुत ही चित्त समाधि मिलेगी। परम पूज्य गुरुदेव के निर्दश से विहार कर शीघ्र ही अकेले दिल्ली पहुंचे। इस प्रकार आप सेवा परायण, श्रमशील, कुशल कलाकार, व्याख्यानी और सूक्ष्म लिपिकार थे। आपश्री ने गीता, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, भक्तामर, शांत सुधारस भावना आदि कई व्याख्यान सूक्ष्म अक्षरों में लिखे। आपके अक्षर मोती जैसे थे।
आपके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता थी 'अप्पभाषी मियासणे'। यह आगम सूक्त आपके जीवन में चरितार्थ था। आप बहुत ही कम बोलते थे। आपके अधरों पर हर-क्षण हर-पल अध्यात्म रस की गौरव गाथा गुन-गुनाती रहती थी। आपकी नस-नस में गुरू भक्ति की अमिट छाप थी। जीवन में साधना, स्वभाव में सरलता, व्यवहार में विनम्रता, वाणी में माधुर्यता, मुख पर सौम्यता, हृदय में पवित्रता थी। नपे-तुले शब्दों में आप अपनी बात को गहराई में अभिव्यक्त करने की अद्भुत कला आपमें थी।
आपके जीवन दर्शन के कई दृश्य दृष्टि गोचर हुए। ज्ञान से आपका जीवन पवित्र बना हुआ था। जप के निर्मल जल से अभिस्नात होकर आप नित्य उर्जावान बने रहते थे। स्वाध्याय और ध्यान की अनवरत आराधना कर अपने आंतरिक सौंदर्य को द्विगुणित किया। उसकी आभा से आप्लावित आपका आभामंडल जन-जन के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया। धुव योगों की आराधना कर आपने 'रहे भीतर जीए बाहर' को आत्म सात कर लिया।
वर्तमान में तेरापंथ धर्म संघ में आप दीक्षा पयार्य में प्रथम नम्बर के संत थे। आपके जीवन की प्रत्येक क्रिया में संतता झलकती थी, सहज साधना सधी हुई थी। मैंने इन पचास वर्षों में सेवा के दौरान यह अनुभव किया कि आप के उपशम की साधना अद्वितीय थी। छोटे-बड़े सभी कार्य आप स्वयं सहज भावना से करते थे। निकट में रहने वाले संत आपका बहुत मान-सम्मान करते, सेवा सुश्रुषा में तत्पर रहते, फिर भी आप उनसे किसी प्रकार की प्राय: सेवा नहीं लेते थे। हमेशा यही फरमाते कि मेरा स्वयं का कार्य मुझे ही करना चाहिए। मेरी निर्जरा मैं दूसरों को क्यों दूं। ऐसे निस्पृह, अल्पोपधि, त्यागी संतों की सन्निधि में रहने वाला व्यक्ति स्वयं प्रेरित हो जाता है। लगभग 91 वर्ष की उम्र तक भी स्वयं का काम स्वयं करते रहे। चरैवेति-चरैवेति की शुभ्र भावना से तिन्नाणं तारयाणं का मार्ग प्रशस्त करते रहे।
मेरे परम उपकारी के प्रति मैं बहुत-बहुत कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं कि आपके चरणों की सेवा में मेरे वैराग्य के नव पुष्प खिले, अनासक्त चेतना का संबोध मिला, समता के विकास का मार्ग दर्शन मिला और मिली संयम पयार्य में स्फटिक सी पारदर्शिता।
कहा गया है-
'इत्र पूर्ण होने पर भी उसका सुवास रहता है।
गीत पूर्ण होने पर भी उसका अहसास रहता है।
जानता है जो शानदार जीवन जीना जग में,
समय पूर्ण होने पर उसका इतिहास रहता है।।'
आपश्री की अनेक विशेषताओं से भरा जीवन मेरे लिए कदम-कदम पर मार्गदर्शक बनता रहेगा। आपकी सेवा में बैठकर जो खुद पाया वह मेरे जीवन विकास की आधारशिला है, प्रेरणा है। आपके अनुग्रह से मेरे जीवन का पौर-पौर आप्लावित व आह्वलादित हुआ है। सहवर्ती संत व्यवस्थापक मुनिश्री यशवंतकुमार जी स्वामी व मोक्ष मुनि दोनों संतों ने मुनिश्री हर्षलाल जी स्वामी को खूब चित्त समाधि पहुंचाई है। सेवा का पूरा-पूरा लाभ लिया। मैं आपश्री के प्रति कृतज्ञता के भाव अर्पित करती हूं। मैं दिवंगत आत्मा के प्रति मगंलकामना करती हूं कि आपकी आत्मा जहां भी गयी है वह शीघ्र ही मोक्षश्री का वरण करे।
तुम्हारा निर्मल मन, है आकर्षक व्यक्तित्व।
शांति करूणा दृढ़ता का अदभुत रस अस्तित्व।।