गणाधिपति तुलसी की महान् कृति-आचार्य महाप्रज्ञ
प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सफलता का वरण करना चाहता है पर सफलता उसे मिलती है जिसका आचार-विचार-संस्कार-व्यवहार अच्छा होता है और ये सब अच्छे होते हैं अच्छे लोगों के सम्पर्क से। अच्छे लोगों के सम्पर्क में रहे बिना अच्छे विचारों का सृजन संभव नहीं। अच्छे विचारों का होना जीवन का पहला घटक तत्त्व है। आचार्य महाप्रज्ञ के विचार उन्नत थे, कारण उन्हें कालूगणी जैसे महान आचार्य तथा आचार्य तुलसी जैसे गौरवशाली संत का बचपन से ही सुयोग मिला। कहा जा सकता है गणाधिपति तुलसी की महान् कृति थी-आचार्य महाप्रज्ञ।
भारतीय परम्परा में अनेक ऋषि, महर्षि, संत, महंत, निर्ग्रन्थ व आचार्य हुए हैं जिन्होंने अपनी आत्मा साधना के साथ जन-मानस को कृतार्थ किया था एवं जो आज भी विश्व मानव के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। उनका विराट व्यक्त्तित्व और कर्तृत्व सम्पूर्ण जैन समाज ही नहीं बल्कि मानव मात्र के लिए पथ-दर्शक है। उन महान विभूति का नाम है तेरापंथ धर्मसंघ के दशम् अनुशास्ता आचार्य श्री महाप्रज्ञ। आचार्य श्री महाप्रज्ञ अनेक विशेषताओं को लिए हुए थे। वे अपने दीक्षा गुरू के प्रति सर्वात्मना समर्पित थे। दीक्षित होते ही पूज्य गुरुदेव कालूगणी ने ज्ञानार्जन हेतु अपने सुशिष्य मुनि तुलसी को सौंप दिया। आचार्य महाप्रज्ञ का जैसा समर्पण भाव कालूगणी के प्रति था वैसा ही शिक्षा गुरू मुनि तुलसी के प्रति रहा। उनकी एक ही भावना थी- 'आणाए मामगं धम्मं'। आगम का यह वाक्य उनका जीवन सहचर बन गया अर्थात् गुरू आज्ञा ही मेरा परम धर्म है। इसीलिए जब एक बार गुरू तुलसी ने आचार्य बनने के बाद पूछा- क्या तुम मेरे जैसा बनोगे तो महाप्रज्ञ ने सहज भाव से कहा- आप बनाओगे तो बन जाऊंगा। यह था उनका समर्पण भाव। उन्होंने गुरू के प्रति बहुमान और अटूट श्रद्धा का भाव रखा और उसी में अपूर्व आनंद की अनुभूति की।
कुछ लोग ऐसे होते है जिनमें साधना होती है पर विद्वता नहीं, तो कुछ में विद्वता होती है पर साधना नहीं। आचार्य महाप्रज्ञ में साधना और विद्वता दोनों का समावेश था। उन्होंने ज्ञानार्जन के द्वारा विद्वता हासिल की तो प्रेक्षाध्यान के नित नये प्रयोगों से गहन साधना की। साधना की गहराई में उतरकर अन्वेषण कर अनेक उपलब्धियां हासिल की। इतने उद्भट विद्वान होने के बावजूद वे कभी लौकेषणा में नहीं गए। वे एक ऐसे अनगार थे जिनमें अहंकार और आवेश का भाव नहीं था। वे स्वयं कहा करते थे कि मुझे पता नहीं कि कभी जीवन में किसी बात को लेकर मेरे मन में अहंकार अथवा आवेश के भाव आए हों। ऐसे व्यक्ति ही साधना के क्षेत्र में विकास कर सकते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ऋजुप्राज्ञ थे। सरलता तो उनके रग-रग में थी। बचपन से ही वे भद्र प्रकृति थे। सरलता के साथ उनमें सहनशीलता का भी समावेश था। सरलता और सहनशीलता के सद्गुण ने अपने गुरु तुलसी के दिल में एक विशिष्ट स्थान बना लिया था। यों कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी कि वे गुरूदेव श्री तुलसी के दिल में उतर गए। अनुकूल परिस्थिति में उदासीन भाव और प्रतिकूलता की स्थिति में समभाव रखा और यही बन गया उनका महान् लक्ष्य।
यद्यपि वे एक धर्मसंघ के आचार्य बने पर उनका चिंतन सदैव असाम्प्रदायिक ही रहा। सम्प्रदाय को वे संघीय व्यवस्था मानते थे। उनके कार्य जैन शासन की प्रभावना तथा मानवता की सेवा के संदर्भ में थे। इसी बात को सामने रखकर सदा अपने प्रवचन सार्वभौम और सर्वजन हितोपदेश के रूप में कराते थे। यहां तक जीवन के आठवें दशक में उन्होंने अहिंसा यात्रा की। 'सत्वेषु मैत्री' की प्रबल भावना से उन्होंने सप्त वर्षीय यात्रा के दौरान जन-जन को नैतिकता, सद्भावना और भाईचारे का संदेश दिया। जातिवाद, प्रांतवाद, सम्प्रदायवाद व्यक्ति और समाज में अलगाव पैदा करता है। अतः भारत की अनेक महान हस्तियां उनके चरणों में आकर मार्गदर्शन प्राप्त करती रही चाहे वे राजनेता, समाजनेता, धर्मगुरू आदि हो या किसी संस्था या संघ से जुड़े हुए ही क्यों नहीं हो। एक बार राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उनके चरणों में आए तो आचार्य महाप्रज्ञ ने एक ऐसी बात कही कि वे उनके फैन हो गए। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने कहा- कलाम साहब आपने अनेक मिसाइलें बनाई हैं किन्तु अब शान्ति की मिसाइल बनाईए। इस बात से वे इतने प्रभावित कि प्रतिवर्ष आचार्य महाप्रज्ञ के चरणों में आने लग गए। जब सूरत में आचार्य महाप्रज्ञ चातुर्मास करवा रहे थे तो वे अपना जन्मदिन मनाने व आशीर्वाद लेने पहुंच गए और एक शानदार कार्यक्रम आयोजित हुआ। फिर एक पुस्तक का निर्माण हुआ जो आचार्य महाप्रज्ञ और राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की सम्मिलित रचना के रूप में प्रकाशित हुई।
आचार्य महाप्रज्ञ की आगम सम्पादन के साथ साहित्य के क्षेत्र में दो सौ से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उनका वह साहित्य आज भी जन-जन का मार्गदर्शन कर रहा है। हम उनके जन्मदिवस पर यही कामना करते हैं कि उनके द्वारा प्राप्त अवदानों से, मार्गदर्शन से अपने साधना वैभव को बढ़ाते रहें तथा उनकी आचार-निष्ठा, संयम-प्रियता, सरलता, गंभीरता, सहिष्णुता के साथ मानवता, नैतिकता व भाईचारे की भावना को विकसित कर सकें। हम भी जीएं सरलता से, चले सजगता से, कहे सुगमता से, रहे निस्पृहता से, सहे सहनशीलता व समता से, मानें कृतज्ञता से - उन कुशल नेतृत्व प्रदानकर्ता आचार्य श्री महाप्रज्ञ के प्रति उनके 105 वें जन्मदिन पर कृतज्ञ भाव से चैतन्य का वंदन-वंदन-वंदन।