निवृत्ति की साधना है ध्यान : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

निवृत्ति की साधना है ध्यान : आचार्यश्री महाश्रमण

जिन शासन के उज्ज्वल नक्षत्र आचार्यश्री महाश्रमणजी ने लुहारा स्थित विद्यालय में अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि मनुष्य संज्ञी होता है, जिसके पास मन होता है। मनुष्य दो प्रकार के बताए गए हैं—पहला संज्ञी मनुष्य, जिनके पास मन होता है, और दूसरा असंज्ञी मनुष्य, जिनके पास मन नहीं होता। असंज्ञी मनुष्य अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। यह आश्चर्यजनक है कि इन्हें मनुष्य क्यों कहा गया है। इसका कारण यह है कि असंज्ञी मनुष्य, संज्ञी मनुष्य की संतान होते हैं। इन्हें संमूर्च्छिम या अमनस्क भी कहा जाता है। मन, एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। मन के द्वारा मनन, चिंतन, कल्पना और स्मृति की जा सकती है।
मन की चंचलता भी होती है, जिसे ध्यान के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता है। संसार में विभिन्न ध्यान पद्धतियां प्रचलित हैं। ध्यान का अर्थ है मन को एकाग्र कर किसी केन्द्र पर लगाना, निर्विचार होना, और शरीर, वाणी तथा मन का निरोध करना। हमारी प्रवृत्ति कर्मशील होती है, जबकि ध्यान एक निवृत्ति की साधना है। आचार्यश्री तुलसी के समय एक विशेष ध्यान पद्धति विकसित हुई जिसे 'प्रेक्षा ध्यान' नाम दिया गया। वर्तमान में यह पद्धति अपने पचासवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है, जिसे 'प्रेक्षा ध्यान कल्याण वर्ष' की उपमा दी गई है।
जैन दर्शन में चार प्रकार के ध्यान बताए गए हैं:- आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान। इनमें आर्त्त और रौद्र ध्यान अशुभ हैं और पाप कर्म को बांधने वाले हैं, जबकि धर्म और शुक्ल ध्यान शुभ हैं। जैसे शरीर में सिर और वृक्ष में मूल का महत्व है, वैसे ही साधु धर्म में ध्यान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। ध्यान के साथ अणुव्रतों और स्वाध्याय की साधना से अध्यात्म मजबूत होता है। अष्टांग पद्धति में यम-नियम का भी विशेष महत्व है। हमारे जीवन में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना चलती रहनी चाहिए। ये पांच महाव्रत अत्यंत ऊंचे आदर्श हैं, जो चित्त को निर्मल बनाते हैं और कल्याण सुनिश्चित करते हैं।
ध्यान के दो प्रकार हो सकते हैं। पहला, शरीर और इंद्रियों को स्थिर कर ध्यान करना। दूसरा, हर कार्य करते हुए भी ध्यान रखना। ईर्या समिति के माध्यम से सतर्कता और चित्त की एकाग्रता संभव है। यह चलते-फिरते ध्यान का अभ्यास हो सकता है। यात्रा करते समय भी ध्यान किया जा सकता है। काम में ईमानदारी रखना भी धर्म का हिस्सा है। शनिवार को सायं 7 से 8 बजे की सामायिक कहीं भी की जा सकती है। धर्म को अपने भीतर गहराई से उतारने का प्रयास करें। जितना संभव हो, धर्म को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। पूज्यवर के स्वागत में स्कूल की कोऑर्डिनेटर जया चोरसिया ने अपनी भावना व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।