मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त करना है संयम का मूल उद्देश्य : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त करना है संयम का मूल उद्देश्य : आचार्यश्री महाश्रमण

मांडवी में दो दिवसीय प्रवास पूर्ण कर भैक्षव गण सरताज आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ लगभग 12 किमी विहार कर तलवाना स्थित श्री मामल भवन पधारे। मंगल प्रेरणा पाथेय में पूज्यश्री ने फरमाया कि जय और पराजय जीवन के दो पहलू हैं। दुनिया में कोई जीतता है तो कोई हारता है, लेकिन शास्त्रों में दो प्रकार की जय का उल्लेख मिलता है – सामान्य जय और परम जय। आचार्यप्रवर ने समझाया कि यदि कोई योद्धा रणभूमि में दस लाख सैनिकों को अकेले पराजित कर दे, तो वह उसकी जय कहलाती है। लेकिन यदि कोई अपनी स्वयं की आत्मा को जीत ले, तो वह परम जय कहलाती है। परम जय इसलिए श्रेष्ठ मानी गई है क्योंकि इसमें व्यक्ति को 'मोहनीय कर्म' को पराजित करना होता है, जो अत्यंत कठिन कार्य है।
जैन तत्त्वविद्या के अनुसार आठ प्रकार के कर्म बताए गए हैं, जिनमें से एक प्रमुख कर्म मोहनीय कर्म है। इसका प्रभाव अत्यंत व्यापक होता है। जो इस कर्म को क्षीण कर देता है, वही परम विजयी कहलाता है। गुस्सा, अहंकार, घृणा, माया, लोभ, राग-द्वेष, मिथ्यादर्शन आदि सभी मोहनीय कर्म के परिवार के सदस्य होते हैं। भगवान महावीर ने कठोर साधना द्वारा मोहनीय कर्म का नाश कर दिया था। केवलज्ञान प्राप्त करने से पूर्व, मोहनीय कर्म का नाश अनिवार्य होता है।
जो साधु परिवार, सांसारिक सुख-सुविधाएँ और भौतिकता को त्याग कर संयम और तपस्या के मार्ग पर चलते हैं, उनका मुख्य लक्ष्य मोह को जीतना होता है। अध्यात्म की साधना में अग्रसर होना और मोहनीय कर्म से मुक्त होने का प्रयास करना, एक साधु के लिए सर्वोच्च विजय की ओर बढ़ने का मार्ग है। आचार्यश्री ने कहा कि यदि हम कभी परम जय को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें अपनी आत्मा को जीतने का संकल्प लेना होगा। जो आत्मा को जीत लेता है, वह इन्द्रियों और कषायों को भी जीत सकता है।
साधु जीवन में चित्त की समाधि और मोह पर विजय अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। भौतिक संसाधन केवल सुविधाएँ प्रदान कर सकते हैं, परंतु सच्ची शांति केवल अध्यात्म की साधना से ही प्राप्त की जा सकती है। यही कारण है कि साधुओं के समक्ष गृहस्थ श्रद्धा से सिर झुकाते हैं, क्योंकि साधु तप, त्याग और संयम के प्रतीक होते हैं। संयम का मूल उद्देश्य मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त करना है। जब यह कर्म क्षीण होने लगता है, तभी व्यक्ति में साधुत्व का प्रादुर्भाव होता है। यही वास्तविक विजय है—अपनी आत्मा को जीतना। पूज्यवर के स्वागत में जिनेश भाई मेहता तथा श्री मामल भवन की ओर से सुरेन्द्र ढेढिया ने अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।