भक्ति और समर्पण हैं आत्मिक विकास के उत्तम सूत्र : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

भक्ति और समर्पण हैं आत्मिक विकास के उत्तम सूत्र : आचार्यश्री महाश्रमण

कच्छ यात्रा के अंतर्गत तेरापंथ के नायक आचार्यश्री महाश्रमणजी का द्वी दिवसीय प्रवास हेतु मांडवी में पधारना हुआ। आचार्य प्रवर ने अमृत देशना देते हुए फरमाया कि चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है—भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यंत, वर्तमान अवसर्पिणी काल के भरत क्षेत्र के समस्त तीर्थंकरों को। इस नमन में भक्ति की भावना अंतर्निहित है। परमात्मा बन चुके वीतराग और सिद्धों के प्रति भक्ति श्रद्धा और समर्पण को पुष्ट करती है। जब व्यक्ति में भक्ति और समर्पण का भाव प्रबल हो जाता है, तो वह कठिन कार्य करने के लिए भी सक्षम हो जाता है।
जैन दर्शन में नमस्कार महामंत्र एक ऐसा महामंत्र है, जिसमें नितांत विशुद्ध आत्माओं को नमन किया गया है। नमस्कार मंत्र का एक महत्वपूर्ण तत्व वीतरागता है। अर्हत पूर्ण वीतराग होते हैं। सिद्ध निर्लेप और निराकार होते हैं, वे अलेश्य-अयोग होते हैं और आठों कर्मों से मुक्त हो चुके होते हैं। वे विशुद्ध आत्मा होते हैं। आचार्य तीर्थंकर के प्रतिनिधि और छत्तीस गुणों से युक्त होते हैं। उपाध्याय आगम के ज्ञाता हैं और पाँचवें पद में महाव्रतधारी साधनाशील साधु होते हैं। इन पांच पदों को अर्हता, सिद्धि, आचार, ज्ञान और साधना का प्रतीक माना जा सकता है।
इन पाँचों पदों में पूर्णतः या अंशतः वीतरागता विद्यमान होती है। जब हम इन सभी को नमन करते हैं, तो अहंकार का विलय होता है। जिनका हम नमन कर रहे हैं, हमें उनके जैसा बनने का प्रयास भी करना चाहिए। भक्ति से कर्म निर्जरा संभव है, और भक्ति से ही व्यक्ति आत्मिक विकास की ओर अग्रसर हो सकता है। आचार्यश्री ने कहा कि वही सत्य और निशंक है, जो जिनेश्वरों ने प्रवेदित किया है। भक्ति और समर्पण केवल परंपरा का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि यह आत्मोन्नति के महत्वपूर्ण सूत्र हैं। जो यथार्थ और सच्चाई को समझता है और उसी के प्रति भक्ति रखता है, वही सच्ची भक्ति करता है। लेकिन सत्य बोलना भी विवेकपूर्ण होना चाहिए—हर सत्य बोलना आवश्यक नहीं, लेकिन झूठ बोलना अनुचित है। जब बोलें, तो सत्य ही बोलें।
आचार्यश्री ने उल्लेख किया कि आचार्य रायचंदजी ने मांडवी में छह रात्रियाँ बिताई थीं। करीब 192 साल पूर्व की बात है, 192 वर्षों के पश्चात मेरा आना हुआ है। यह वही भूमि है जहाँ ऋषिराय महाराज के पावन चरण पड़े थे। मुनि डालचंदजी भी मांडवी पधारे थे। मांडवी की जनता में धार्मिक निष्ठा और अध्यात्म की आस्था बनी रहे, यही मंगलकामना है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की वाणी के फलस्वरूप ही आज हम मांडवी आएं हैं। आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि धर्म जीवन का मूल आधार है। जीवन में संयम, तप और त्याग होना चाहिए। मनुष्य जन्म का सबसे बड़ा लाभ यही है कि हम धर्म की साधना करें।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आचार्यवर सदैव अध्यात्म की चर्चा करते हैं, भौतिकता की नहीं। वे आत्मा के सौंदर्य को निखारने पर बल देते हैं। वीतरागता प्राप्त करने के लिए क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग आवश्यक है। आचार्यवर एक बहुत बड़े संघ के मार्गदर्शक हैं। संघ का नेतृत्व करना सरल नहीं होता, अनेक प्रकार की समस्याएँ आती हैं, परंतु वे अत्यंत शांतचित्तता और धैर्य से उन्हें हल करने का प्रयास करते हैं। आचार्यवर में कभी झुँझलाहट नहीं आती। जो व्यक्ति स्थितप्रज्ञता में आगे बढ़ जाता है, वह निश्चित रूप से वीतरागता की ओर अग्रसर हो जाता है। मांडवी के विधायक अनिरुद्ध भाई दवे एवं स्थानीय संघ प्रमुख राजूभाई डोशी ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी अभिव्यक्ति दी। स्थानीय तेरापंथ महिला मण्डल ने अपनी प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।