
भक्ति और विनय से प्राप्त हो सकती है शक्ति : आचार्यश्री महाश्रमण
मर्यादा पुरुष आचार्यश्री महाश्रमणजी का कोडाय के बहत्तर जिनालय में मंगल पदार्पण हुआ। अर्हतवाणी का अमृतपान कराते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि यदि व्यक्ति के जीवन में शक्ति होती है, तो वह कुछ विशेष कर सकता है। लेकिन यदि शक्ति न हो, तो कुछ विशेष करना कठिन या असंभव हो सकता है। तीर्थंकरों के पास अपार शक्ति होती है। जब अंतराय कर्म क्षीण हो जाते हैं, तो शक्ति के मार्ग में कोई बाधा नहीं रह जाती।
तीर्थंकर पूर्णतया अभय होते हैं। जिसने भय को जीत लिया, वह अत्यंत शक्तिशाली बन जाता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। यह सृष्टि का स्वाभाविक क्रम है कि जंबूद्वीप के भरत और ऐरावत क्षेत्र में तीर्थंकरों की संख्या सदैव चौबीस ही होती है। अढ़ाई द्वीप के भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्रों में एक साथ कुल 170 तीर्थंकर विराजमान हो सकते हैं।
तीर्थंकरों की चौबीसी तीन प्रकार की होती है—वर्तमान, अतीत और आगामी। वर्तमान और अतीत के तीर्थंकर वंदनीय हैं, परंतु आगामी उत्सर्पिणी काल के तीर्थंकर अभी वंदनीय नहीं हैं, क्योंकि वर्तमान में वे किसी अन्य गति में स्थित हो सकते हैं। सिद्धांततः वे अभी साधु भी नहीं हैं, लेकिन भविष्य में वे तीर्थंकर बनने वाले हैं। यह इस संसार का सौभाग्य है कि यहाँ तीर्थंकरों का प्रादुर्भाव होता है।
वर्तमान में जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में कोई तीर्थंकर विराजमान नहीं हैं। आगामी उत्सर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर राजा श्रेणिक के जीव होंगे, जो 'पद्मनाभ' नाम से भगवान महावीर की भांति होंगे। वर्तमान में सीमंधर स्वामी महाविदेह क्षेत्र में विराजमान हैं, लेकिन हमें उनके प्रत्यक्ष दर्शन उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी, हम अपने भीतर उनका ध्यान कर सकते हैं। हमें अनंत सिद्धों और तीर्थंकरों को वंदन करना चाहिए। प्रत्यक्ष तीर्थंकर दर्शन हों या न हों, हमें अपनी आत्मा के दर्शन का प्रयास करना चाहिए। जब व्यक्ति अपनी आत्मा की ओर ध्यान देता है, तो वह स्वयं का कल्याण कर सकता है।
'लोगस्स पाठ' से चौबीस तीर्थंकरों की भक्ति, स्तुति और वंदन हो जाता है, जो वर्तमान अवसर्पिणी में हुए हैं। लोगस्स पाठ की एक माला फेरना अत्यंत लाभकारी है। 'णमो सिद्धाणं' का जप करने से अनंत सिद्धों का वंदन हो जाता है। हमारे भीतर भी तीर्थंकरों जैसा विकास संभव है। यदि अष्टकर्मों का क्षय हो जाए, तो परमात्मा पद की प्राप्ति संभव है। भक्ति और विनय से कर्म निर्जरा का लाभ मिल सकता है और शक्ति भी प्राप्त हो सकती है।
शक्ति के अनेक स्वरूप हो सकते हैं। मन, वचन और काया की शक्ति होती है। धनबल और जनबल भी शक्ति के रूप हैं। शक्ति का अहंकार न करें, बल्कि उसका उपयोग स्वयं और दूसरों के कल्याण के लिए करें। तपस्या से भी शक्ति प्राप्त की जा सकती है, लेकिन उसका उपयोग किसी को कष्ट देने के लिए नहीं होना चाहिए। यदि सभी शक्तियों के साथ धर्म और अध्यात्म जुड़ जाए, तो इनका सही सदुपयोग संभव हो सकेगा। अपनी शक्ति को छिपाएँ नहीं, बल्कि उसका सदुपयोग करें। मंगल प्रवचन के उपरांत बहत्तर जिनालय से जुड़े कल्पेश भाई ने अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।