धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

(पिछला शेष)
वहां से प्रस्थान करने पर साधु कुछ दूर तक उनका अनुगमन करते हैं। फिर जब वे दृष्टि से ओझल हो जाते हैं, साधु अपने स्थान पर लौट जाते हैं और इस बात से आनन्दित होते हैं कि इस भगवान (हमारे पूज्य आचार्य) ने सुखसेवनीय स्थविरकल्प को छोड़ दुष्कर अभ्युद्यत विहार को स्वीकार किया है। जिनकल्प को स्वीकार करने वाला यदि सामान्य साधु होता है तो वह खमतखामण कर लेता है और फिर वहां से प्रस्थान कर देता है।
विशिष्ट धर्माराधना का पर्व : पर्युषण
संसार में दो ही तत्त्व हैं अथवा दो ही तत्त्वों का परिणमन संसार है। वे दो तत्त्व हैं चेतन और अचेतन। हमारा जीवन भी इन्हीं दो तत्त्वों का योग है। आत्मा चेतन तत्त्व है और शरीर अचेतन तत्त्व है, जड़ तत्त्व है। इन दोनों के मिलन का नाम ही जीवन है। इन दोनों के बिछुड़ने से जीवन अजीवन के रूप में परिणत हो जाता है। केवल आत्मा भी जीवन नहीं कहलाती और केवल शरीर भी जीवन नहीं कहलाता। मोक्ष में अनन्त मुक्त आत्माएं हैं, पर शरीर का योग न होने से वहां उनका कोई जीवन नहीं है। मृत्यु के पश्चात् मात्र शरीर को जीवन नहीं कहा जाता। जीवन का अर्थ है द्वंद्व, दो का सह अस्तित्व ।
आदमी बन्द कमरे में अकेला बैठा हुआ स्वाध्याय आदि कर रहा है। वह अपने आपको अकेला अनुभव करता है। उसका अनुभव सही भी है परन्तु साथ में यह भी उतना ही सही है कि वह अकेला नहीं है, दो (शरीर और आत्मा) है। चेतन और शरीर की सहस्थिति होती है, किन्तु उनमें ऐक्य नहीं होता। उनका अस्तित्व अलग-अलग रहता है। ये दोनों अस्तित्व की दृष्टि से पार्थक्य रखते हुए भी परस्पर सापेक्ष रहते हैं। ज्योंही निरपेक्षता घटित होती है, जीवन-लीला समाप्त हो जाती है जीव और स्थूल शरीर के सहावस्थान की स्थिति जीवन है और इनका सर्वथा पृथक् होना मृत्यु है।
जीवन (शरीर और आत्मा का योग) के लिए पोषण की अपेक्षा रहती है। केवल आत्मा को पोषण नहीं चाहिए! केवल शरीर को भी पोषण नहीं चाहिए। न जीवमुक्त शरीर (शव) को भोजन की अपेक्षा होती है और न शरीरमुक्त जीव (मुक्त आत्मा, सिद्ध) को भोजन की अपेक्षा रहती है।
हमारे जीवन के दो पहलु हैं-भौतिक और आध्यात्मिक। उसके आधार पर पोषण (जीवन का पोषक तत्त्व) भी दो प्रकार का हो जाता है-भौतिक पोषण और आध्यात्मिक पोषण। इन दोनों प्रकार के पोषणों की सम्यकू पूर्ति स्वस्थ जीवन के लिए अपेक्षित है। आदमी रोटी, पानी आदि के द्वारा भौतिक पोषण प्राप्त करता है, शारीरिक बल प्रमुखतया अर्जित करता है। यह जीवन का एक पक्ष है। इस पक्ष का संबंध इस (वर्तमान जन्म के) जीवन तक सीमित है।
जीवन का दूसरा पक्ष है आध्यात्मिक। इसका संबंध मानसिक शांति, चित्त समाधि, सहज प्रसन्नता, परम आनन्द और आत्मशुद्धि के साथ है। यह पक्ष केवल वर्तमान जीवन तक ही सीमित नहीं है। इस जीवन की इतिश्री के बाद भी वह पक्ष अपना प्रभाव बनाए रखता है। भौतिक पक्ष जीवन का अनिवार्य अंग है, किन्तु अध्यात्म शून्य भौतिकता अशान्ति भी पैदा कर सकती है, इसलिए कम से कम दोनों में संतुलन तो स्थापित होना ही चाहिए।
आध्यात्मिक पक्ष को पोषण प्रदान करने के लिए उन उपज़ूमों की अपेक्षा रहती है जो हमारे कषाय (कोध, मान, माया, लोभ) को नियन्त्रित, उपशान्त व निर्जीर्ण करने वाले हों। उन विभिन्न उपक्रमों को समझना और उनका प्रयोग करना अपेक्षित है। एक शब्द में उन उपक्रमों को 'धर्म' संज्ञा दी जा सकती है।
जैन धर्म आत्मवादी धर्म है। आत्मा उसका केन्द्रीय तत्त्व है। जैन आचार और विचार की प्रायः सभी अवधारणाएं उसी की परिधि में अवस्थित हैं। जैन दर्शन में प्रत्येक आत्मा का स्वतन्त्र और त्रैकालिक अस्तित्व सम्मत है। वह सदा थी, सदा है और सदा रहेगी। वह अपने मूल स्वरूप में शुद्ध, अमूर्त, ज्योतिर्मय और निरामय है। वह अपने उत्तर अथवा आरोपित स्वरूप में अशुद्ध, मूर्त, अंधकारमय और सामय (सरोग) भी है। वह सुख-दुःख का अनुभव करती है। वह स्वयं उसकी विधाता है। वह नाना योनियों में परिसंचरण करती हुई कभी मनुष्य योनि में भी पहुंच जाती है। मनुष्य जन्म रूपी वृक्ष के छः फल बताए गए हैं-
जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्तिः, सत्त्वानुकम्पा शुभपात्रदानम्।
गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य, नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि।।