
श्रमण महावीर
'परिस्थिति निमित्त कारण हो सकती है पर वह मूल कारण नहीं है। परिस्थिति की अनुकूलता में अंकुर फूटता है, पर वह अंकुर का मूल कारण नहीं है। उसका मूल कारण बीज है। विकास का तारतम्य परिस्थिति से प्रभावित होता है, पर उसका मूल कारण परिस्थिति नहीं है, किन्तु कर्म है।'
अग्निभूति की तार्किक क्षमता काम नहीं कर रही थी। भगवान् के प्रथम दर्शन में ही उनमें शिष्यत्व की भावना जाग उठी थी। शिष्यत्व और तर्क-दोनों एक साथ कैसे चल सकते हैं? वे लम्बी चर्चा के बिना ही सबुद्ध हो गए। वे आए थे इन्द्रभूति को वापस ले जाने के लिए, पर नियति ने उन्हें इन्द्रभूति का साथ देने को विवश कर दिया। वे अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान् की शरण में आ गए।
पावा की जनता कुछ नई घटना घटित होने की प्रतीक्षा में थी। उसने अग्निभूति की दीक्षा का संवाद बड़े आश्चर्य के साथ सुना। वह वायुभूति के कानों तक पहुंचा। वे चकित रह गए। उनमें संघर्ष की अपेक्षा जिज्ञासा का भाव अधिक था। उन्होंने सोचा-श्रमणनेता में ऐसी क्या विशेषता है, जिसने मेरे दोनों बड़े भाइयों को पराजित कर दिया। मैं जानता हूं, मेरे भाई तर्कबल से पराजित होने वाले नहीं हैं। वे श्रमणनेता की आत्मानुभूति से पराजित हुए हैं। वायुभूति के मन में भगवान् को देखने की उत्कंठा प्रबल हो गई। वे अपने पांच सौ शिष्यों को साथ लेकर भगवान् के पास पहुंच गए।
भगवान् ने उन्हें संबोधित कर कहा, 'वायुभूति! तुम्हारी वह धारणा सशोधनीय है कि जो शरीर है वही जीव है। मैं साक्षात् देखता हूं कि शरीर और जीव एक नहीं हैं। ये दोनों भिन्न हैं, एक अचेतन और दूसरा चेतन।'
'भंते! क्या इस विषय का साक्षात् किया जा सकता है?'
'निश्चित ही किया जा सकता है।'
'क्या यह मेरे लिए भी संभव है?'
'उन सबके लिए संभव है जो आत्मवादी हैं और आत्मा के शक्ति-स्रोतों को विकसित करना जानते हैं।'
वायुभूति के मन में एक प्रबल प्यास जाग गई। वे आत्म-साक्षात्कार करने के लिए अधीर हो उठे। उन्होंने उसी समय भगवान् से आत्मवाद की दीक्षा स्वीकार कर ली।
भगवान् का परिवार कुछ ही घंटों में बड़ा हो गया। वर्षों तक वे अकेले रहे। आज पन्द्रह सौ शिष्य उन्हें घेरे बैठे हैं और दरवाजा अभी बंद नहीं है।
यज्ञशाला में एक विचित्र स्थिति निर्मित हो गई। उसके
आयोजक चिंता में डूब गए। यज्ञ की असफलता उनके चेहरे
पर झलकने लगी। सर्वत्र उदासी का वातावरणा छा गया। आयोजक वर्ग ने अन्य विद्वानों को श्रमणनेता के पास जाने से रोकने के प्रयत्न शुरू कर दिये।
पैसे के पास पैसा जाता है। धनात्मक शक्ति ऋणात्मक शक्ति को अपनी ओर खींच लेती है। महावीर ने शेष विद्वानों को इस प्रकार खींचा कि वे वहां जाने से रुक नहीं सके।