
गुरुवाणी/ केन्द्र
लर्निंग केवल अर्निंग तक सीमित नहीं हो : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म जगत के सुमेरु आचार्यश्री महाश्रमणजी प्रातः लगभग 12 किमी का विहार कर अध्यात्म नगरी पाटण के हेमचन्द्राचार्य उत्तर गुजरात युनिवर्सिटी के प्रांगण में पधारे। पाटण एक अध्यात्म की ऐतिहासिक नगरी है, जो जैन धर्म के कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र तथा उनके समय के राजा सिद्धराज और राजा कुमारपाल से जुड़ी हुई है। यहां प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का भण्डार भी है। आगम अधिनेता आचार्य प्रवर ने युनिवर्सिटी के कन्वेंशन हॉल में विशाल परिषद को अध्यात्म विद्या से जागृत करते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा और ज्ञान के बिना भीतर अंधकार बना रहता है। अज्ञान एक कष्ट है। गुस्सा, अहंकार आदि पाप हैं। अज्ञान से आवृत्त व्यक्ति यह जान ही नहीं पाता कि क्या हितकर है और क्या अहितकर।
व्यक्ति अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर, और मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर हो—यह आवश्यक है। शिक्षा के लिए जागरूकता जरूरी है। प्रश्न उठता है कि शिक्षा का लक्ष्य क्या है? सामान्य लक्ष्य तो अर्थार्जन हो सकता है—Learning for Earning—आत्मनिर्भर बनने की क्षमता लर्निंग से प्राप्त हो सकती है। परंतु लर्निंग केवल अर्निंग तक सीमित नहीं होनी चाहिए। आगम में कहा गया है कि "मुझे श्रुतज्ञान प्राप्त होगा, इसलिए मुझे अध्ययन करना चाहिए," जिससे मैं एकाग्रचित बन सकूं। ज्ञान में रमण करने वाला व्यक्ति चित्त की चंचलता को कम कर सकता है। ज्ञान से व्यक्ति स्वयं को सन्मार्ग पर स्थापित कर सकता हूं और दूसरों को भी सन्मार्ग में प्रेरित कर सकता है। शिक्षा से व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, चिंतन-मनन की क्षमता विकसित होती है, और जीवन की समस्याओं से समाधान पाया जा सकता है।
ज्ञान के दो प्रकार होते हैं – अतीन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रिय-मन से संबंधित ज्ञान। एक है आत्म-समुत्थान ज्ञान और दूसरा इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान। केवलज्ञान आत्म-समुत्थान का ज्ञान है। वैशाख शुक्ल दशमी को भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। इन्द्रिय जनित ज्ञान कुंड के जल जैसा है – जितना डाला, उतना ही निकला। अतीन्द्रिय ज्ञान कुएं के जल जैसा है – जिसमें भीतर से स्रोत फूटता है। आचार्य हेमचन्द्र का ज्ञान विशिष्ट था, इसी कारण उन्हें कलिकाल सर्वज्ञ कहा गया। ज्ञानावरणीय कर्मों के सघन उदय से ज्ञान प्रकट नहीं हो पाता। इनके क्षयोपशम से स्मरण शक्ति तीव्र हो सकती है। आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित अभिधान चिन्तामणि में लगभग 1500 श्लोक हैं—मानो संस्कृत शब्दों की फैक्टरी है। उसमें अनेक विषयों का ज्ञान समाहित है।
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से नये-नये विषय ध्यान में आते हैं। हमारे चतुर्थाचार्य जयाचार्यजी में भी ऐसा ही उत्तम ज्ञान था। विद्यार्थी को पांच बातों से बचना चाहिए – अहंकार, अभिमान, गुस्सा, प्रमाद और आलस्य। उसमें प्रज्ञा के साथ पुरुषार्थ होना चाहिए। साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आचार्य प्रवर का ज्ञान का क्षयोपशम अत्यंत सराहनीय है। आप हर विषय की सुंदर व्याख्या कर देते हैं। राजा सिद्धराज की प्रार्थना पर आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धहेम व्याकरण कोष की रचना की थी। उन्होंने योग पर भी गूढ़ ग्रंथों की रचना की थी।
राजा कुमारपाल ने भी आचार्य हेमचन्द्र को अत्यधिक सम्मान दिया। उन्होंने जैन धर्म की प्रभावना में बड़ा योगदान दिया। आचार्य प्रवर भी नेपाल, भूटान और भारत के कोने-कोने में जैन धर्म की प्रभावना कर रहे हैं। पूज्यवर के स्वागत में युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर किशोरभाई पोरिया, रजिस्ट्रार रोहितभाई देसाई, पाटण तेरापंथ समाज से मुकेशभाई डोशी तथा तेरापंथ महिला मंडल ने वक्तव्य एवं गीत के माध्यम से अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।