
गुरुवाणी/ केन्द्र
कृत कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है : आचार्यश्री महाश्रमण
तीर्थंकर के प्रतिनिधि युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 11 किमी का विहार कर कमलीवाड़ा पगार केन्द्रशाला परिसर में पधारे। मंगल देशना प्रदान करते हुए पूज्यवर ने फरमाया कि – एक की ओर मुख, एक आत्मा की ओर मुख, एक को प्रमुख मानकर चलने का प्रयास होना चाहिए। कोई आत्मा को या किसी अन्य को अपना आराध्य मानकर चलता है। आत्मा मूल में है, पदार्थों का सहयोग लिया जा सकता है। आत्मा तो अकेली ही आती है और अकेली ही चली जाती है। प्राणी अकेला उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है। अकेला ही कर्मों का बंध-संचय करता है और अकेला ही कर्मों का फल भोगता है। किसी को मारना, लूटना, चोरी करना – ये सब पाप हैं।
जब इन पाप कर्मों का फल भोगना पड़ता है, तब कोई साथ नहीं देता। चोरी का माल खाने में लोग साथ होते हैं, परंतु दंड भोगने में कोई साथ नहीं देता। जब व्यक्ति को यह अहसास हो जाता है कि “कोई मेरा नहीं है, किये कर्म का फल मुझे ही भोगना है,” तब उसे आत्मा के अकेलेपन का बोध होता है। व्यक्ति जब व्याधि से पीड़ित होता है तो मित्र-संबंधी कुछ सहयोग कर सकते हैं, पर उसकी पीड़ा को कोई नहीं बाँट सकता। व्यक्ति पाप कर्म करने से बचे, शुभ योग में रहे। “कुण बेटो कुण बाप, करणी आपो आप।” – इस बात के प्रति हमारी जागरूकता होनी चाहिए। संवर-निर्जरा की साधना करें। जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त करना ही साधना का ध्येय होना चाहिए।
दुनिया में पापात्मा हैं तो धर्मात्मा और महात्मा भी हैं। सिद्ध भगवान तो पूर्णतया परमात्मा होते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्म की साधना और अध्यात्म की आराधना करें। जैन दर्शन में कर्मवाद, पुनर्जन्म और नवतत्वों की बात आती है – उनका स्वाध्याय करें। पढ़ने से आलोक मिल सकता है, शास्त्रों से शाश्वत बातें प्राप्त हो सकती हैं। स्वाध्याय से आत्मा का कल्याण हो सकता है। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय अग्रणी गिरीशभाई देसाई, फुलेशभाई देसाई ने अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।