
गुरुवाणी/ केन्द्र
कर्म को नहीं दिया जा सकता है धोखा : आचार्यश्री महाश्रमण
मानवता के तारणहार आचार्यश्री महाश्रमणजी उंझा से लगभग 13 किलोमीटर का विहार कर देणाप में स्थित सेठ एम.सी. विद्या मंदिर के प्रांगण में पधारे। मंगल देशना में पूज्यवर ने जैन दर्शन के नौ तत्वों की ओर संकेत करते हुए विशेष रूप से पाप तत्व पर प्रकाश डाला। पूज्यश्री ने फरमाया — “जब जीव असद् प्रवृत्ति करता है, तो पाप कर्म का बंध होता है। पाप की अठारह श्रेणियों में एक है अदत्तादान — अर्थात ‘न दी गई वस्तु को ले लेना’, जो कि चोरी कहलाती है।”
पूज्य प्रवर ने समझाया कि चोरी चाहे किसी भी रूप में हो — वह पाप ही कहलाती है। कभी-कभी अभाव, गरीबी, भूखमरी जैसे निमित्तों के कारण व्यक्ति इस मार्ग पर चला जाता है, लेकिन जिसके भीतर मजबूत संकल्प शक्ति हो, वह भूखा मर सकता है, पर चोरी नहीं करेगा। चोरी के विभिन्न रूपों पर चर्चा करते हुए आचार्य प्रवर ने कहा कि व्यापार में टैक्स की चोरी, किसी का हक मारना, किसी की अनदेखी से लाभ उठाना — यह सभी चोरी की श्रेणियों में आते हैं। नैतिकता, ईमानदारी, और प्रामाणिकता जैसे गुणों को जीवन में उतारने की प्रेरणा देते हुए आचार्यप्रवर ने कहा — “गुरुदेव तुलसी ने अणुव्रत में इन मूल्यों को विशेष स्थान दिया है। आम आदमी हो या व्यापारी, अफसर हो या राजनेता — सभी को ईमानदारी का प्रयास करना चाहिए।”
पूज्यवर ने यह भी कहा कि ईमानदारी एक ऐसा गुण है जिसे नास्तिक भी स्वीकार करता है। “पैसे में, जीवन में, व्यवहार में — हर जगह ईमानदारी हो। धर्म केवल उपासना तक सीमित न रहे, वह जीवन व्यवहार से जुड़े।” पूज्यवर ने आगे कहा — “कर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता। व्यक्ति को भोला समझकर कोई धोखा दे सकता है, लेकिन कर्मफल सुनिश्चित है। जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है — विश्वास। जब वह चला गया, तो जैसे जीवन की बड़ी कमाई चली गई।”