
स्वाध्याय
संबोधि
जैन आगम में दो शब्द व्यवहृत होते हैं-संज्ञोपयुक्त और नो-संज्ञोपयुक्त। चेतना दो प्रकार की है-संज्ञोपयुक्त चेतना और नो-संज्ञोपयुक्त चेतना। जिसमें संज्ञा होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना है और जिसकी संज्ञा समाप्त हो जाती है वह नो-संज्ञोपयुक्त चेतना है। वीतराग नो-संज्ञोपयुक्त होते हैं। उनके उपयोग में, चेतना में कोई संज्ञा नहीं होती। वह संज्ञातीत चेतना होती है। 'संज्ञातीत' चेतना का अर्थ है-विशुद्ध चेतना, केवल चेतना। जिसके साथ संज्ञा का मिश्रण होता है, जो चेतना संज्ञा से प्रभावित होती है, जो चेतना संवेदनात्मक होती है वह संज्ञोपयुक्त चेतना कहलाती है। संज्ञाएं दस है-
१. आहार संज्ञा २. भय संज्ञा
३. मैथुन संज्ञा ४. परिग्रह संज्ञा
५. क्रोध संज्ञा ६. मान संज्ञा
७. माया संज्ञा ८. लोभ संज्ञा
९. लोक संज्ञा १०. ओघ संज्ञा
हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य है-चेतना में से इन सारी संज्ञाओं को निकाल देना अर्थात् वीतराग बन जाना। यही उद्देश्य है हमारी अध्यात्म साधना का। चेतना के साथ जो संवेदन जुड़ा हुआ है, संज्ञा जुड़ी हुई है, उसको समाप्त कर देना, यह हमारा स्पष्ट लक्ष्य है। इसमें न कोई चमत्कारिक शक्ति प्राप्त करने का उद्देश्य है और न कोई और। केवल अपनी चेतना का संशोधन, परिमार्जन या परिष्कार करना है। जब व्यक्ति की चेतना परिमार्जित और परिष्कृत होती है तब विकास प्रारंभ हो जाता है। क्या हम आहार न करें? क्या आहार संज्ञा को समाप्त करने का यही अर्थ है? नहीं। शरीर के रहते हुए ऐसा संभव नहीं है कि हम आहार न करें। आहार किए बिना साधना नहीं हो सकती। साधना के लिए यदि शरीर जरूरी है तो शरीर के लिए आहार जरूरी है। आहार को नहीं छोड़ा जा सकता किन्तु आहार के प्रति होने वाली आसक्ति या वासना को छोड़ा जा सकता है।