
रचनाएं
महान साधक का प्रभावक प्रबंधन
‘तेरापंथ धर्मसंघ का मैनेजमेंट यूनिक है, आदर्श है, कॉर्पोरेट वर्ल्ड के मैनेजमेंट को भी मात देने वाला है’ — तेरापंथ धर्मसंघ के अनुयायी ही नहीं, अन्य जैन और जैनेतर संप्रदाय के लोगों से भी यदा-कदा ये स्वर सुनाई देते हैं। प्रश्न उठता है — तेरापंथ धर्मसंघ के प्रबंधन की इस रूप में प्रशंसा का कारण क्या है? एक शब्द में उत्तर हो सकता है — एक नेतृत्व। परंतु यह केवल सत्यांश है। एक नेतृत्व निश्चित रूप से तेरापंथ धर्मसंघ की विशेषता है, परंतु सफल प्रबंधन के लिए आवश्यक है — उस नेता की प्रभावशाली प्रबंधन शैली।
व्यवस्था तंत्र को प्रभावक कैसे बनाएं — यह सिखाने के लिए अनेक पाठ्यक्रम बनाए जाते हैं, प्रशिक्षण केंद्र और संस्थानों का निर्माण किया जाता है। लोग उनमें सहभागी बनकर प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। परंतु तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण में तो यह योग्यता नैसर्गिक रूप से विद्यमान है। उनकी प्रबंधन शैली अन्य संगठनों एवं संस्थाओं के लिए आदर्श है।
महान साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जिनके कारण वे एक प्रभावक नेता के रूप में प्रतिष्ठित हैं:
1. Interpersonal Skill:
इसका अर्थ है — एक नेता का अपने संगठन के सदस्यों के साथ मधुर संबंध होना, ताकि उनसे सम्मान एवं सहयोग दोनों ही प्राप्त हो सकें। आचार्य महाश्रमणजी से तीनों जनरेशन कनेक्टेड हैं। बालक हो, युवा हो या वृद्ध, किसी भी उम्र के साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविकाएं हों — वे आचार्यश्री के साथ दिल खोलकर बात कर सकते हैं। आचार्य प्रवर का दृष्टिकोण उदार है, चिंतन विशाल है। वे सबकी भावनाओं को समझते हैं। वे जो भी प्रस्ताव रखते हैं, प्रशिक्षण देते हैं, निर्णय करते हैं या फिर प्रस्तुत समस्या का समाधान प्रदान करते हैं, संघ के सदस्यों की भावनाओं को ठेस न पहुंचे — उसके प्रति बहुत जागरूक रहते हैं। इसीलिए उनके द्वारा जो भी निर्देश दिए जाते हैं या इंगित किया जाता है, संघ के सदस्य सम्मानपूर्वक, अहोभाव से उन्हें पूरा करने में तत्पर हो जाते हैं। संघ से इतना आदर, विनय और समर्पण पाना — आचार्य श्री महाश्रमण की अद्भुत नेतृत्व शैली का ही परिणाम है।
2. Communication and Motivation Skill:
प्रभावशाली संवाद का महत्वपूर्ण अंग है — बात करना। यह सर्वविदित है कि आचार्यश्री महाश्रमणजी बहुत कम बोलते हैं। उन्हें मितभाषण में विश्वास है, परंतु उनके व्यक्तित्व की यह भी विशेषता है कि चाहे वे स्वयं कम बात करें, परंतु जो कोई भी उनसे बात करना चाहता है, उन सबके लिए वे सदा सुलभ रहते हैं। बोलने से भी महत्वपूर्ण है — सुनना। वे बहुत अच्छे श्रोता हैं। उनके पास प्रभावशाली संवाद के दो माध्यम हैं — श्रवण और मुस्कान। कई प्रश्नों का उत्तर तो केवल मुस्कान से देकर ही जिज्ञासुओं को समाहित कर देते हैं। मात्र रत्नाधिकों के लिए ही नहीं, स्वयं से छोटों के लिए भी सम्मान सूचक भाषा का प्रयोग — उनके नेतृत्व शैली की बहुत बड़ी विशेषता है।
प्रबंधन को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक होता है — नेता द्वारा संगठन के सदस्यों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना। आचार्यश्री छोटे-छोटे साधु-साध्वियों को भी अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उनके लिए विविध पाठ्यक्रमों का निर्माण करते हैं एवं उनकी रुचि के अनुसार उस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। विविध विषयों से संबंधित प्रश्न पूछते हैं तथा उत्तर खोजने के लिए आगमों तथा ग्रंथों को पढ़ने की प्रेरणा देते हैं। उत्तर प्रस्तुत करने पर उनके श्रम का मूल्यांकन भी करते हैं। गुरु द्वारा शिष्यों पर जो विश्वास किया जाता है, वह केवल शिष्यों को प्रोत्साहित ही नहीं करता, अपितु संगठन को भी शक्तिशाली बनाता है।
3. Delegation Skill:
Delegation is not just getting things done, it is also about developing people. संघ में अथवा संगठन में विविध प्रकार की गतिविधियां चलती हैं। गतिविधियों की निरंतरता एवं विकास का जिम्मा अलग-अलग व्यक्तियों को सौंपने से न केवल नेता के कार्य का भार कम होता है, अपितु सदस्यों की क्षमताएं बढ़ती हैं और प्रबंधन शक्तिशाली बनता है। संघ के सदस्यों की योग्यताओं को बढ़ाने के लिए आचार्यप्रवर द्वारा खुला आकाश प्रदान किया जाता है। ये अवसर सदस्यों के भीतर नेता के प्रति सम्मान एवं समर्पण के भाव बढ़ाते हैं, जिससे प्रबंधन और अधिक प्रभावशाली बनता है।
4. Forward Planning and Strategic Thinking:
प्रभावक प्रबंधन के लिए आवश्यक है — नेता द्वारा दूरदृष्टिपूर्वक योजनाबद्ध तरीके से कार्य का संपादन होना। कार्य कितना ही छोटा क्यों न हो, आचार्यश्री महाश्रमणजी पूर्ण योजना पूर्वक उसे संपादित करते हैं। कार्यक्रम में किसको कहां बैठाना है — से लेकर, विशेष अवसर चाहे वह तेरापंथ के पर्वों की आयोजना हो, पूर्वज आचार्यों के शताब्दी-द्विशताब्दी वर्ष हों, दीक्षा का कार्यक्रम हो, अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान या फिर योगक्षेम वर्ष का आयोजन हो — सब कुछ पूरी योजना के साथ क्रियान्वित किया जाता है। उसी का परिणाम है कि आचार्यश्री के निर्देशन में आयोजित हर कार्यक्रम सफल परिणामों के साथ परिपूर्ण होता है।
5. Decision Making:
प्रबंधन का प्रभाव बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण एवं सहायक अंग है — नेता की निर्णय शक्ति। आचार्य महाश्रमण की निर्णय शक्ति अद्भुत है। बचपन से ही उनमें यह गुण विद्यमान था। मात्र 12 वर्ष की अवस्था में बालक मुदित का यह सोचना कि ‘मैं शादी करूं या दीक्षा लूं?’ और तर्कपूर्वक यह चिंतन करना कि ‘दीक्षा लेने से मेरे भव-प्रसंग कम हो जाएंगे, इसलिए मैं दीक्षा ही लूंगा’ — उनकी विशिष्ट निर्णय शक्ति का परिचायक है। काठमांडू भूकंप एवं कोरोना महामारी जैसी विषम स्थितियों में भी दूसरों की बातों से अप्रभावित रहते हुए यात्रा संबंधित निर्णयों पर अडिग रहना — आचार्य श्री महाश्रमण की स्वतंत्र निर्णय शक्ति का ही परिणाम है। मंत्री मुनिप्रवर की नियुक्ति, मुख्यमुनि एवं साध्वीवर्या जैसे विशिष्ट पदों का सृजन, बहुश्रुत परिषद, समीक्षा परिषद एवं कल्याण परिषद का गठन, साध्वाचार संबंधी नियमों में परिष्कार करना — आचार्य महाश्रमण की बेजोड़ निर्णय शक्ति की ही अभिव्यक्ति है।
सफल प्रबंधन शैली के कारण ही आचार्य श्री महाश्रमण के नेतृत्व का स्तर भी हमेशा बढ़ता रहा है। कक्षा के मॉनिटर — शिक्षक — प्रशिक्षक — अंतरंग सहयोगी — सभापति — महाश्रमण — युवाचार्य महाश्रमण — आचार्य महाश्रमण — यह क्रम उनके नेतृत्व के ऊँचाई पर पहुंचते ग्राफ को प्रस्तुत करता है। आज आचार्य महाश्रमण तेरापंथ धर्मसंघ के सर्वोच्च पद पर सुशोभित हैं। नेतृत्व के साथ-साथ उनकी साधना का स्तर भी हमेशा ऊपर उठता रहा है। वे महान नायक भी हैं और महान साधक भी। उनकी साधना उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त करें — उस अवस्था तक पहुँचा जाए, जिसके लिए कहा जाता है — "सव्वे सरा नियदंति — मइ तत्थ न गाहिया।" उपनिषद की भाषा में — अनिर्वचनीय स्वरूप को प्राप्त करें।
तारणहार आचार्य श्री महाश्रमण के नेतृत्व में साधना करते हुए हम भी परम का स्पर्श करें।