आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

शिविर साधना

 एक बार गुरु गोविंदसिंहजी के शिष्य सामूहिक रूप में गुरु के सामने उपस्थित हुए। उन्होंने अपनी समस्या प्रस्तुत करते हुए कहा‘हम प्रतिदिन भगवान का भजन करते हैं पर हमें कोई लाभ नहीं होता। इतने वर्षों से हम साधना कर रहे हैं, उसका कोई परिणाम क्यों नहीं आता?’ गुरु गोविंदसिंहजी बोले‘तुम्हारा प्रश्‍न मेरी समझ में आ गया है। मैं इसका उत्तर कुछ समय बाद दूँगा।’ शिष्य चले गए।
कुछ दिनों बाद गुरुजी ने शिष्यों को बुलाकर कहा‘एक मटका ताड़ी से भरकर लाओ और उससे कुल्ले कर मटके को खाली कर दो।’ शिष्य गए। एक बड़ा मटका ताड़ी से भरकर लाए। अब वे उस मटके के पास बैठकर कुल्ले करने लगे। देखते-देखते उन्होंने सारी ताड़ी मुँह से लेकर नीचे गिरा दी। मटका खाली कर वे गुरु के पास पहुँचे। गुरुजी ने पूछा‘तुमने सारी ताड़ी समाप्त कर दी?’ शिष्यों की स्वीकृति पाकर वे फिर बोले‘इतनी ताड़ी थी, उससे तुमको नशा नहीं आया?’ शिष्य विस्मित होकर गुरु जी की ओर देखने लगे। गुरुजी की द‍ृष्टि से जिज्ञासा झलक रही थी। शिष्यों के लिए यह नई स्थिति थी। क्योंकि वे जब कभी गुरु के चरणों में उपस्थित होते, अपनी जिज्ञासा और समस्या लेकर आते थे। आज उन्हें गुरु की जिज्ञासा को समाहित करना था। कुछ क्षण सोचकर वे बोले‘गुरुदेव! हमने ताड़ी को गले से नीचे उतारा ही नहीं, तब नशा कैसे छाएगा?’
गुरुजी ने उनकी ही बात से उनके प्रश्‍न का उत्तर देते हुए कहाशिष्यो! तुमने भगवान का भजन किया है, पर ऊपर-ऊपर से। भगवान के नाम को गले से नीचे उतारा ही नहीं, तब तुम्हें लाभ कैसे होगा? जब तक भगवद्-भजन के साथ तुम्हारा मन नहीं जुड़ेगा, तुम अंत:करण से भगवान का नाम नहीं लोगे, भगवान के नाम के पीछे पागल नहीं बन जाओगे, तब तक तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा, उक्‍त घटना के संदर्भ में यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि धर्म की गहराई में उतरे बिना धर्माराधना से होने वाला लाभ नहीं मिल सकता। धर्म की गहराई में जाने के लिए शिविर-साधना एक प्रशस्त प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद वर्तमान के लिए धर्म कितना उपयोगी है, यह प्रश्‍न शेष नहीं रहता।

परिवर्तन की प्रक्रिया

परिवर्तन पाते कई, जीवन में आमूल।
आ जाती है समझ में, स्वयं स्वयं की भूल॥
नैसर्गिक आस्था निमल, द‍ृढ़ द‍ृढतम संकल्प।
अप्रतिहत गति से चले, जो अभ्यास अनल्प॥
अनुशासित संयत विरत, मानस हो तैयार।
शिविर-साधना का बने, तब ऊँचा आधार॥

प्रश्‍न : प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने के लिए शिविर-साधना का क्रम चल रहा है। शिविरों में साधक को साधना का वातावरण मिलता है, मार्गदर्शन मिलता है और साधना के अनुरूप साधना-सामग्री भी प्राप्त होती जाती है। इतनी सुविधा मिलने के बाद शिविर में साधना करने वाले साधक के जीवन में कोई परिवर्तन आता है या नहीं?
उत्तर : परिवर्तन जीवन का मूल मंत्र है। कोई भी व्यक्‍ति जैसा होता है, वैसा नहीं रहता। रहना भी नहीं चाहिए। बच्चा किशोर होता है, युवा होता है, प्रौढ़ होता है और वृद्ध होता है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया से हर व्यक्‍ति को गुजरना ही होता है। यह जीवन का अनिवार्य क्रम है। परिवर्तन केवल अवस्था का ही नहीं होता, भीतर और बाहर दोनों ओर से होता है। ऊपर से शरीर की त्वचा बदलती है तो भीतर से शरीर के सभी धातु बदलते हैं। शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तन से उसके विचारों में बदलाव आता है, आदतों में बदलाव आता है और स्वभाव में बदलाव आता है। इस बदलाव का व्यक्‍ति के व्यक्‍तित्व-निर्माण पर पूरा प्रभाव पड़ता है।
व्यक्‍ति अपना बौद्धिक विकास चाहता है। वह युग के अनुरूप शिष्टता का विकास चाहता है। अपनी आदतों में परिष्कार करने के लिए भी वह उत्सुक रहता है। आदतों का बदलना आज का बहुत बड़ा प्रश्‍न है। परिवार और समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए स्वभाव-परिवर्तन की किसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझना और उसका प्रयोग करना बहुत आवश्यक है। अन्यथा एक ही परिवार के सदस्यों में इतना मन-मुटाव हो जाता है कि वह जीना मुश्किल कर देता है। परस्पर संदेह उत्पन्‍न होता है, गलतफहमियाँ बढ़ती हैं, उनका निराकरण न होने से आक्रोश बढ़ता है जो मानसिक द्वंद्व को जन्म देता है। ऐसी स्थिति में मन:स्थिति को सामान्य बनाए रखने के लिए आदतों को बदलना बहुत जरूरी है।
कुछ लोगों को नशे की आदत हो जाती है। मादक पदार्थों के सेवन से उस आदत को पोषण मिलता है। आदत पुष्ट होने के बाद मादक द्रव्यों का अतिरिक्‍त सेवन होने लगता है। मात्रा और काल दोनों का अतिक्रमण होने के बाद व्यक्‍ति इतना परवश हो जाता है कि आदत छोड़ना उसके वश की बात नहीं रहती। नशे की आदत से शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सभी प्रकार की कठिनाइयाँ बढ़ जाती हैं। शरीर-तंत्र की अव्यवस्था का सीधा प्रभाव मन पर होता है। इसी प्रकार आर्थिक असंतुलन का भार मन पर पड़ता है। मानसिक असंतुलन से पारिवारिक कलह का जन्म होता है। झुंझलाहट का उद्भव होता रहता है। इन सब समस्याओं का समाधान ध्यान के द्वारा पाया जा सकता है।
(क्रमश:)