सम्पादकीय
भगवान महावीर ने अपने शिष्यों से कहा - 'भिक्षुओं! तुम परिव्रजन करो तथा अभिजात और निम्न वर्ग को एक ही धर्म की शिक्षा दो।' भगवान महावीर के शिष्य-शिष्याएं आज भी परिव्रजन कर रहें हैं और सुप्त मानव जाति को सही मार्ग दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। भगवान के समय भी चारित्रात्माओं के लिए कुछ व्यवस्थाएं थी। कालान्तर में उन व्यवस्थाओं में परिवर्तन हुआ और परिवर्तन होते-होते इतने परिवर्तन हो गए कि निर्ग्रन्थ पथ पर चलने वाले पथिक मूल पथ से ही भटक गए। ऐसे समय में राजनगर के श्रावकों की घटना ने संत भीखणजी को यथार्थ को जानने की प्रेरणा दी और जन्म हुआ तेरापंथ का।
इसके पूर्वार्ध और उत्तरार्ध का इतिहास किसी परिचय की अपेक्षा नहीं रखता। सब जानते हैं कि मर्यादा और अनुशासन इस संघ की नींव, पहचान, ढाल और रक्षक है। आचार्य श्री भिक्षु द्वारा लिखित एवं उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा निर्णीत मर्यादाएं किसी पर थोपी नहीं जाती, वरन एक-एक की आत्म साक्षी से स्वीकृत होती हैं। चारित्रात्माएं लेखपत्र का वाचन करते हैं और उनके सम्यक निर्वहन का प्रयास भी करते हैं। आचार्य श्री तुलसी ने श्रावक समाज के लिए भी मर्यादा पत्र सदृश 'श्रावक निष्ठा पत्र' का सृजन किया। हर श्रावक-श्राविका को श्रावक निष्ठा पत्र और सम्यक्त्व दीक्षा के नियम न केवल कंठस्थ हों अपितु उनका आचरण भी उसी अनुरूप रहे। प्रश्न है कि क्या आप और मैं इनका सम्यक पालन कर पाते हैं ? आचार्य की आज्ञा और निर्देश ही नहीं, उनके इशारे को समझ कर भी उसका सम्यक आचरण हमारे इस भव को सफल बना कर भव परंपरा से मुक्ति में भी सहायक हो सकता है। आवश्यकता है तो केवल सर्वात्मना समर्पण की। सर्वात्मना समर्पण की भावना मुझ में, आप में और धर्म संघ के हर सदस्य में वृद्धिंगत होती रहे।
मर्यादा महोत्सव ऐसा अवसर है, जब पूज्य आचार्य प्रवर मर्यादाओं की स्मारणा कराते हैं और धर्मसंघ को नवीन निर्देश देते हैं। चतुर्विध धर्मसंघ इन निर्देशों को समर्पित भाव से अपनाता है इसीलिए धर्म संघ की शक्ति और प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। चारित्रात्माओं के विहार-चतुर्मास आदि की घोषणा भी इस अवसर पर होती है। शेष काल का समय वैसे भी विहार का होता है, कई स्थानों पर चारित्रात्माओं की रास्ते की सेवा में विभिन्न संस्थाओं का योगदान रहता है। प्रायः सभा और युवक परिषद् की भूमिका प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देती है। समाज की अन्य संस्थाएं भी इसे अपनी एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी समझे एवं अपने तन और मन का कुछ योगदान इस सेवा में अवश्य दें। स्थानीय सभाएं भी आगे आकर बैनर में उल्लेखित होने वाली सहयोगी संस्थाओं को दायित्व के साथ जोड़ें और उन्हें भी कर्म निर्जरा का अवसर प्रदान करें। सबसे उत्तम स्थिति तो यह हो कि श्रावक समाज स्वयं को इन संस्थाओं का या धर्म संघ का अंग मानकर कुछ दिनों की पारिवारिक सेवा का प्रयास करे। कुछ घंटों की रास्ते की सेवा एक श्रावक को संत दर्शन, वंदना, रास्ते में मौन साधना, तिविहार या चौविहार त्याग, यथा संविभाग व्रत, प्रवचन, संवर या सामायिक, मंगल पाठ और आशीर्वाद, आध्यात्मिक ऊर्जा आदि अनेकों लाभ एक साथ मिल सकते हैं, बस स्व-विवेक को जागृत करने की अपेक्षा है।
खैर, पूज्य श्री अनेकों की खाली झोली को चातुर्मासों से भरने वाले हैं। अपने पात्रों को सीधा और खाली रखेंगे तो कुछ प्राप्त कर पाएंगे, अन्यथा पात्र होकर भी अर्थ नहीं निकल पाएगा। चारित्रात्माओं को शय्यातर, कपड़े, आहार, औषध या अन्य उपयोगी दान की भावना अवश्य भाएं, और यही संस्कार अपने बच्चों में भी संक्रांत करें। शुद्ध हृदय से भावना भाने मात्र से भी हमारा कल्याण निश्चित है, और आत्म-कल्याण ही तो हमारा लक्ष्य है।