कच्छ एक परिचय
कच्छ का शाब्दिक अर्थ है कुछ ऐसा जो बीच-बीच में गीला और सूखा हो जाता है। इस जिले का एक बड़ा हिस्सा कच्छ के रण के रूप में जाना जाता है, जो उथली आर्द्रभूमि है। यह बरसात के मौसम में पानी में डूब जाता है और अन्य मौसमों में सूख जाता है। रण अपने दलदली नमक के मैदानों के लिए जाना जाता है, जो मानसून की बारिश के बाद उथले पानी के सूखने पर बर्फ़ की तरह सफ़ेद हो जाते हैं।
कच्छ ने सिंधु घाटी सभ्यता, मौर्य, चालुक्य और मुगलों सहित विभिन्न राजवंशों का शासन देखा है। इस क्षेत्र का इतिहास सांस्कृतिक प्रभावों से भरा हुआ है, जहाँ स्वदेशी परंपराएँ बाहरी प्रभावों के साथ मिलती हैं। भूकंप और आक्रमणों के बावजूद कच्छ ने अपनी विशिष्ट विरासत को बनाए रखा है, जो कला, शिल्प और सांस्कृतिक प्रथाओं के मिश्रण के रूप में दिखाई देती है। कच्छ को 1956 में बॉम्बे राज्य में शामिल किया गया था। 1960 में महाराष्ट्र और गुजरात के विभाजन के बाद यह गुजरात का हिस्सा बन गया।
कच्छ की आबोहवा के लिए एक कहावत है –
सियाले सोरठ भलो, उनाले गुजरात।
वरसे तो वागड़ भलो, कच्छड़ो बारे मास।।
कच्छ और जैन धर्म
कच्छ में एक हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन जैन मंदिर जैन धर्म के प्रचार की गाथा गाते हैं। यहाँ मूर्तिपूजक यति वर्ग का प्रभुत्व था, जिसका प्रभाव शासक वर्ग पर भी था। धीरे-धीरे सौराष्ट्र के एकल पात्रिया साधुओं का यहाँ आगमन प्रारंभ हुआ। ये साधु वेश धारण करते, पैदल यात्रा और भिक्षाचरण करते हुए खुद को श्रावक कहते थे। इसके बाद स्थानकवासी मुनियों का आगमन और तेरापंथ धर्मसंघ का प्रचार प्रारंभ हुआ।
वर्तमान में कच्छ का जैन समाज अपनी विशेष पहचान रखता है। यहाँ तेरापंथ जैन संघ की तुलना में मूर्तिपूजक (देरावासी) और स्थानकवासी जैन समाज की संख्या अधिक है। जैन समाज के श्रीमाली, गुर्जर और ओसवाल समुदाय का राजस्थान के भीनमाल और जोधपुर के निकट ओसियाजी गाँव से संबंध रहा है। यहाँ जैन समाज के सात गच्छ परिवार हैं – तपागच्छ, अचलगच्छ, खतरगच्छ, छ कोटि, आठ कोटि नानी पक्ष, आठ कोटि मोटी पक्ष और तेरापंथ।
कच्छ और तेरापंथ
कच्छ में तेरापंथ का प्रवेश आचार्य भिक्षु के समय में ही हुआ। भिक्षु स्वामी के प्रथम श्रावक गेरुलालजी व्यास अपने व्यापारिक कार्य से मांडवी आए थे। वहाँ उनकी मुलाकात स्थानकवासी श्रावक टीकमजी डोशी से हुई। धर्म चर्चा के दौरान टीकमजी डोशी ने भिक्षु स्वामी के सिद्धांतों को समझा और आचार्य भिक्षु को गुरु रूप में स्वीकार किया। यह घटना वि.सं. 1851 की है, जिसे कच्छ में तेरापंथ के बीजवपन के रूप में माना जाता है। इसके बाद टीकमजी डोशी के प्रयासों से बेला, देशलपर, गेड़ी, मौवाणा, अंजर, मुंद्रा और मांडवी के कई परिवार तेरापंथ धर्मसंघ से जुड़े।
फतेहगढ़ और तेरापंथ
संवत 1927 में मुनि बींजराजजी की प्रेरणा से फतेहगढ़ क्षेत्र में तेरापंथ का विस्तार हुआ। मूलचंदजी कणबी के प्रयासों से यहाँ सैकड़ों परिवार तेरापंथी बने। फतेहगढ़ और बेला कच्छ के तेरापंथ धर्मसंघ के मुख्य केंद्र बने।
तेरापंथ के आचार्य और कच्छ
तेरापंथ के तृतीय आचार्य रायचंदजी ने संवत् 1889 में कच्छ की यात्रा की। उनका बेला में 10 दिनों का प्रवास हुआ। उनकी इस यात्रा ने कच्छ के श्रावक समाज में नवजीवन का संचार किया। सप्तम आचार्य डालचंदजी ने अपने मुनि जीवन में कच्छ की तीन यात्राएँ कीं और पाँच चातुर्मास यहाँ किए। उनकी प्रभावशाली वाणी ने कच्छ के हर वर्ग पर अमिट छाप छोड़ी। आचार्य तुलसी ने वि.सं. 2024 (1967) में कच्छ की यात्रा की। 28 दिनों की इस यात्रा में उन्होंने अणुव्रत का प्रचार किया और तेरापंथ को स्थायी पहचान दिलाई। आचार्य महाश्रमणजी ने 2013 में 44 दिनों तक कच्छ में प्रवास किया, जिससे यहाँ तेरापंथ समुदाय को विशेष पहचान मिली।
कच्छ से दीक्षित साधु-साध्वियाँ
कच्छ से अब तक तेरापंथ धर्मसंघ में 30 दीक्षाएँ हुई हैं। इनमें सर्वप्रथम दीक्षा मुनि लीलाधारजी (गणमुक्त) की हुई। साध्वियों में सर्वप्रथम दीक्षा साध्वी मूलांजी की सं. 2005 में हुई।
वर्तमान में कच्छ क्षेत्र के 18 साधु-साध्वी और समणी तेरापंथ धर्मसंघ में साधनारत हैं-
1. मुनि अनंतकुमारजी
2. मुनि सिद्धार्थकुमारजी
3. साध्वी विवेकश्री
4. साध्वी मुक्तिश्रीजी
5. साध्वी हेमलताजी
6. साध्वी मंगलयशाजी
7. साध्वी मलययशाजी
8. साध्वी मल्लिकाश्रीजी
9. साध्वी गौरवयशाजी
10. साध्वी केवलयशाजी
11. साध्वी नवीनप्रभाजी
12. साध्वी अर्चनाश्रीजी
13. साध्वी रुचिरप्रभाजी
14. समणी हिमप्रज्ञाजी
15. समणी करूणाप्रज्ञाजी
16. समणी जिज्ञासाप्रज्ञाजी
17. समणी क्षांतिप्रज्ञाजी
18. समणी ख्यातिप्रज्ञाजी