मर्यादा महोत्सव एक कल्प प्रयोग
भारतीय संस्कृति एवं इतिहास में अनेक उत्सवों का अपना उत्स और महात्म्य है। भारत में किसी न किसी धर्म, परम्परा आदि से जुड़ा हुआ उत्सव हर दिन त्योहार सा बन जाता है। ऐसे दिन प्रेरणा के प्रतीक भी बन जाते हैं। तेरापंथ धर्मसंघ की उर्जस्वल परम्परा से जुड़ा एक उत्सव जिसे मर्यादा महोत्सव के नाम से पहचाना जाता है। यह पर्व लौकिकता से पृथक अलौकिक भाव चेतना के साथ जुड़ा हुआ है। यह उत्सव तेरापंथ का महाकुम्भ है। इसमें आचार्य द्वारा निर्दिष्ट साधु-साध्वियों के वर्ग सम्मिलित होकर साधुता की तेजस्विता, कर्तृत्व की कर्मशीलता एवं नव सृजन के निष्ठा का भाव जगाते हैं। मर्यादा और अनुशासन की भाव धारा से बंधा यह महोत्सव एक गुरु और एक विधान के प्रति समर्पित रहने के संस्कारों का विकास एवं सघनता के लिए प्रेरणा और प्रशिक्षण का महान उपक्रम है। तेरापंथ एक सुगठित धर्मशासन है, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि आगे इसके विकास की कोई संभावना न हो इस अर्थ में हमें निश्चय ही वर्तमान के प्रति आश्वस्त-विश्वस्त होना चाहिए।
तेरापंथ की अपनी मौलिक विशेषता है- संगठन पक्ष। देह और आत्मा की तरह संगठन और साधना दो भिन्न तत्व होते हुए भी अभिन हैं। हमें देह से ही आत्मा का परिचय होता है। आत्म परिचय के साथ हम देह से मुक्ति की यात्रा कर सकते हैं। आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए साधना का शिखर प्राप्त करना जितना अपेक्षित है उतना ही संगठन के साथ जुड़ कर अपने आपको भावित करना जरूरी है। संगठन से जुड़ने का अर्थ साधना के लिए समर्पित होना है।
विश्व में तेरापंथ धर्म संघ का एक विशिष्ट उदाहरण है कि जहाँ संगठन की सौष्ठवता के लिए मर्यादा महोत्सव मनाया जाता है। तेरापंथ धर्मसंघ मर्यादा और अनुशासन की दृष्टि से उच्चता को प्राप्त है। यदि हम इसकी मीमांसा में जाएं तो हमें तीन बातें विशेष रूप से नजर आएंगी। श्रमण महावीर ने अनुशासन के जो सूत्र दिए वे निश्चित रूप से तेरापंथ के संगठन की आधार शिलाएं हैं। इस आधार पर तेरापंथ ने जो अनुशासन के क्षेत्र में विकास किया है, उसके तीन प्रमुख आधार हैं - सुसंगत संविधान, जागरुक नेतृत्व तथा सदस्यों का समर्पण भाव। इन तीन तत्वों पर तेरापंथ की विशिष्टता जगत मान्य है। आचार्य भिक्षु ने नेतृत्व को बहुत महत्व दिया। उन्होंने तत्कालीन साधु-समाज की स्थिति के संदर्भ में अनुभव किया - मर्यादा के बिना साधु वर्ग की आचार चर्या को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। इस अनुभव के आलोक में आचार्य भिक्षु ने संवत् 1832 में तेरापंथ धर्म संघ का पहला संविधान लिखा। शिष्य मुनि भारमल्लजी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसके साथ ही एक नेतृत्व की परम्परा का सूत्रपात हो गया।
आचार्य भिक्षु ने उस मर्यादा पत्र में समय-समय पर अनेक संशोधन और परिष्कार किए। सन् 1859 में अन्तिम संविधान-पत्र लिखा। वह लिखत (मर्यादा-पत्र) आज भी तेरापंथ धर्मसंघ का आधारभूत संवैधानिक दस्तावेज बना हुआ है। आचार्य भिक्षु ने इसकी नींव में मर्यादा का ऐसा शिलाखण्ड रखा जो इस महल को निरन्तर सुदृढ़ आधार प्रदान कर रहा है। आचार्य भिक्षु के बाद श्रीमद् जयाचार्य ने उनके अनुभवों का लाभ उठाते हुए तेरापंथ को एक नया अवदान प्रदान किया। जिसकी पहचान मर्यादा महोत्सव के रुप में विश्व व्यापी बनी। मर्यादा महोत्सव तेरापंथ की अनुशासन, व्यवस्था, प्रगति, नवसृजन, प्रेरणा, प्रोत्साहन, सारणा-वारणा, अतीत की समीक्षा वर्तमान का चिन्तन तथा भविष्य की कल्पना का महान उत्सव है। तेरापंथ के महा-कुम्भ मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्य गत वर्ष का सिंहावलोकन करते हुए वर्ष भर में हुए कार्यों की समीक्षा करते है।
नई नीतियों को लागू करते हैं। आचार्य की सन्निधि में साधना, संघीय विकास एवं जनहित सम्बन्धी विभिन्न विषयों पर संगोष्ठियां होती हैं। तेरापंथ के संविधान के प्रति सजगता, समर्पण एवं आत्मनिष्ठा के संस्कारों को प्रगाढ़ बनाने का पाथेय अनुशास्ता द्वारा सलक्ष्य प्रदान किया जाता है। स्वास्थ्य, संयम एवं सुखद सहवास के लिए साधु-साध्वियों को अन्तरंग व्यवस्थाएं भी इस अवसर पर आचार्य का मुख कार्य होता है, जिसे आचार्य मन और आत्मीय भाव से करवाते हैं।