
कर्मों का खेल तय करता है हमारे जीवन की दिशा : आचार्यश्री महाश्रमण
जन-जन को बोधि प्रदान कराने हेतु युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी सामखियाली से लगभग तेरह किलोमीटर का विहार कर भचाऊ के शासकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान एवं श्रमिक कौशल प्रमाणीकरण केन्द्र में पधारे। आत्मबोध की दिव्य प्रेरणा देते हुए शांतिदूत ने फरमाया कि जैन दर्शन में कर्मवाद एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। दुनिया में अनेक दर्शन और धर्म हैं, और सबके अपने-अपने सिद्धांत हैं। जैन दर्शन में आत्मवाद का विशेष महत्व है, जहाँ आत्मा को शाश्वत माना गया है। जब तक आत्मा मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेती, वह जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करती रहती है। आत्मवाद से जुड़ा हुआ ही कर्मवाद का सिद्धांत है। इसी प्रकार लोकवाद भी एक सिद्धांत है। इस प्रकार कई अन्य छोटे-छोटे वाद हो सकते हैं, किंतु यदि संक्षेप में कर्मवाद का सार जानना हो, तो "जैसी करणी, वैसी भरणी" इसका मूल तत्व है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है। यदि सद्कर्म किए हैं, तो शुभ फल मिलेगा, और अशुभ कर्म किए हैं, तो कष्ट भोगने पड़ेंगे।
यदि कर्मवाद का विस्तारपूर्वक अध्ययन करें, तो इसके अनेक सूक्ष्म नियम हैं। जैन दर्शन में कर्मवाद का अद्भुत वर्णन मिलता है, जहाँ आठ प्रकार के कर्म बताए गए हैं। ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को आवृत करने वाला है। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से अनेक जीवों में ज्ञान का उदय ही नहीं होता है। जिस प्रकार बादल के हटने से सूर्य की तेजस्विता सामने आती है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान का प्रकाश दृश्यमान होने लगता है। हर आत्मा में ज्ञान निहित है, किंतु अधिकांशतः वह आवृत्त रहता है। ज्ञान का आवरण किसी का कम तो किसी का ज्यादा होता है। यदि किसी का पूर्ण रूप से आवरण हट जाता है तो मानों ज्ञान का महासूर्य उदय हो जाता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान के चार किनारे के समान हैं। ज्ञानावरणीय कर्म का बहुत अच्छा क्षयोपशम हो जाता है और सम्पूर्ण ज्ञान आलोक हो जाता है तो ये चारों ज्ञान एक केवलज्ञान में मानों समाविष्ट हो जाते हैं।
ज्ञान प्राप्ति में बाधा डालने, ज्ञानी का विरोध करने, ज्ञान की अवहेलना करने के कारण जीव के ज्ञान पर आवरण पड़ सकता है। इसलिए हमें ज्ञान और ज्ञानी का सम्मान करना चाहिए तथा ज्ञान ग्रहण में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति ज्ञान और ज्ञानी का सम्मान करता है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म का अच्छा क्षयोपशम हो जाता है तो वह आगे बुद्धिमान हो जाता है। ज्ञानावरणीय कर्म की तरह दर्शनावरणीय, वेदनीय आदि कर्मों का उल्लेख प्राप्त होता है। वेदनीय कर्म के प्रभाव से स्वास्थ्य में अनुकूलता या प्रतिकूलता उत्पन्न हो सकती है। वेदनीय कर्म के दो प्रकार बताए गए हैं—सात वेदनीय और असात वेदनीय। गजसुकुमाल मुनि के प्रसंग के माध्यम से पूज्य प्रवर ने समझाया कि कर्म किसी को भी नहीं छोड़ता, चाहे वह साधु हो या गृहस्थ।
भगवान महावीर ने भी अपने जीवन में कष्ट सहे, यह कर्म के प्रभाव का ही परिणाम था। शुभ कर्म के उदय से सौंदर्य, यश, सम्मान प्राप्त होता है, जबकि अशुभ कर्म विपरीत प्रभाव डालते हैं। कर्मों का यही खेल हमारे जीवन की दिशा तय करता है। अतः "जैसी करणी, वैसी भरणी" को सदैव स्मरण रखते हुए बुरे कार्यों से बचें और संयम की साधना करें, जिससे पाप कर्मों से बचाव हो सके। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।