
तेरापंथ का संविधान दिवस मर्यादा महोत्सव
जैन आगम नंदी सूत्र में संघ की स्तुति करते हुए संघ को आठ उपमाओं से उपमित किया है :-
संघ एक रथ है, संघ एक चक्र है, संघ एक नगर है, संघ एक पद्म है, संघ एक चन्द्रमा है, संघ सूर्य है, संघ समुद्र है, संघ मेरु है। संघ मेरु है इसकी आगमिक गाथा है -
‘नाणा-वररयण-दिप्पंत-कंत-वेरुलिय-विमल चूलस्स।
वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स।।’
जिसके प्रधान ज्ञान रूपी वैडूर्य रत्न से दीप्तिमान कांत, विमल चूला है, उस संघ महामंदराचल को विनय प्रणत होकर वंदना करता हूं। संघ गतिशील और मार्गानुगामी है इसलिए उसकी रथ से तुलना की गई है। संघ विजयी होता है इसलिए उसकी विजयक्षम चक्र के साथ तुलना की गई है। नगर प्राकारयुक्त होने के कारण सुरक्षा देता है, संघ भी साधक को सुरक्षा देता है, इसलिए संघ की नगर के साथ तुलना की गई है।
जैसे पद्म जल में रहते हुए भी उससे लिप्त नहीं होता वैसे ही संघ राग-द्वेषात्मक लोक में रहते हुए भी उससे लिप्त नहीं होता। इस आधार पर संघ की पद्म के साथ तुलना की गई है। सौम्यता और निर्मलता की दृष्टि से संघ की चन्द्रमा के साथ तुलना की गई है। प्रकाशकता और तेजस्विता की दृष्टि से संघ की सूर्य के साथ तुलना की गई है। अक्षुब्धता, विशालता और मर्यादा की दृष्टि से संघ की समुद्र के साथ तुलना की गई है। स्थिरता और अप्रकम्पता की दृष्टि से संघ की मेरु पर्वत के साथ तुलना की गई है।
संघ का कितना महत्वपूर्ण स्थान है वह हम उपर्युक्त नंदी सूत्र की स्तुति गाथाओं के माध्यम से समझ सकते हैं। संघ के चार अंग है- साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका। तीर्थंकर संघबद्ध साधना का प्रवर्तन करते हैं। संघ साधना का आश्रय स्थल है, गति है, शरण है, त्राण है, प्रतिष्ठा है, आश्वास है, विश्वास है और वातानुकुलित भवन है। वर्तमान युग में तो संघबद्ध साधना की अत्यधिक उपयोगिता है। क्योंकि संघ में शक्ति होती है। इसीलिये कहा गया है- 'संघे शक्तिः कलौ युगे।' कलियुग में संगठन ही शक्ति है। वैदिक धर्म के अनुसार अभी कलियुग है। जैन धर्म के अनुसार पांचवां आरा है। इस काल में तेरापंथ जैसा धर्मसंघ प्राप्त होना कलियुग में सतयुग की अनुभूति कराता है। तेरापंथ का भव्य प्रासाद मर्यादा और अनुशासन की भित्ति पर आधारित है। जहां अनुशासन और मर्यादा होती है वह संघ, समाज और राष्ट्र उन्नति करता है। अन्यथा अनुशासनहीनता और अराजकता पनपने की प्रबल संभावना रहती है।
संविधान का निर्माण
लोक महर्षि आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने लिखा है- 'वर्तमान युग में अनुशासन और मर्यादा के बिना साधुत्व का पालन कठिन है। जहां अनुशासन रूपी वल्गा और मर्यादा रुपी लक्ष्मण रेखाएं होती है वह संघ शिखरों का आरोहण करता है।' आचार्य श्री भिक्षु ने बहुत दूरदर्शिता से मर्यादाओं (संविधान) का निर्माण किया। उन्होंने आठ मर्यादा पत्र लिखे, जिन्हें लिखत भी कहते हैं। प्रथम मर्यादा पत्र विक्रम सम्वत 1832 मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी को अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति के साथ लिखा। उसकी मुख्य शब्दावली है- 'साध-साध्वी करणा ते भारमलजी रे नामे करणा, आपरे नामे चेला चेली करणारा सर्व साधु-साध्वयां रे पचक्खाण छै।' आठवां और अंतिम मर्यादा पत्र (संविधान पत्र) सं. 1859 माघ शुक्ल सप्तमी को 'थावर कीजै थापना' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए शनिवार को लिखा।
मर्यादा का उद्देश्य
आचार्य श्री भिक्षु ने न्याय, संविभाग और शुद्ध चारित्रिक साधना के लिए मर्यादाओं का निर्माण किया। आचार्य भिक्षु ने कहा- 'सबके साथ न्याय हो इसलिए मैंने मर्यादाओं का निर्माण किया। संघ में इतने साधु-साध्वियां हैं सबको न्याय मिलता है, किसी के साथ पक्षपात नहीं होता। सबको साधना एवं प्रगति का समान अधिकार है। एक मुनि वर्षों से दीक्षित है, वह मौन या ध्यान की विशिष्ट साधना कर रहे हैं तो वैसे ही आज का दीक्षित मुनि भी उसी तरह की साधना कर सकता है। आचार्य श्री निष्पक्षता से सबकी संभाल करते हैं। भगवन महावीर ने कहा- ‘असंविभागी न हु तस्स मोक्खो’ - संविभाग के बिना मुक्ति नहीं है। आचार्य भिक्षु ने भगवान की इस वाणी को आधार रखते हुए कहा- संविभाग भी मर्यादा निर्माण का हेतु है। तेरापंथ में हर कार्य संविभाग से होता है। स्थान, आहार, वस्त्र आदि का सभी साधु-साध्वियों में सम वितरण होता है। कोई यह नहीं कह सकता की मुझे अमुक वस्तु कम मिली। आचार्य श्री तुलसी ने लिखा है- तेरापंथ की मर्यादाएं केवल संगठन प्रधान ही नहीं, आचार प्रधान भी हैं। आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आचार के पीछे संगठन होता है। इसलिए उन्होंने मर्यादा निर्माण के उद्देश्य में लिखा- 'चारित्र चोखो पलावण रो उपाय कीधो है।' आचार जितना शुद्ध होगा संघ की नींव उतनी ही मजबूत होगी। आचार्य भिक्षु के अभिनिष्क्रमण के पीछे लक्ष्य था- आचार क्रांति।
मर्यादाओं का फलित
तेरापंथ की ये मर्यादाएं अप्रितम हैं। इसका अनुसरण करते हुए तेरापंथ 264 वर्षों से प्रगति कर रहा है। मर्यादाओं की बदौलत ही अडोल खड़ा है। संघ के समक्ष कितने तूफान आए लेकिन कोई आंच नहीं आई। तेरापंथ की प्रगति का एकमात्र कारण है - प्राणवान मर्यादाएं और जीवंत अनुशासन। मर्यादाओं के फलस्वरूप ही सम्पूर्ण कार्य आचार्य की आज्ञा से होता है। संघ का प्रत्येक सदस्य उनकी आज्ञा के पालन के लिए एक सच्चे सैनिक की भांति सदैव तत्पर रहता है। वह आचार्य श्री की आज्ञा को वासुदेव की आज्ञा मानता है। चाहे आज्ञा की अनुपालना के लिए भीषण कष्ट झेलने पड़े पर वह यही सोचता है- 'आणाए मामगं धम्मं' आज्ञा में मेरा धर्म है।
संघ संगठित और सुव्यवस्थित है। वह इसलिए है की आचार्य के अलावा किसी के शिष्य-शिष्याएं नहीं है। अन्यथा शिष्यों के मोह में सभी पड़ जाते हैं जिससे अव्यवस्था फैलती है। मर्यादाओं का सबसे महत्वपूर्ण फलित यह हुआ कि एक आचार्य के नेतृत्व में सम्पूर्ण संघ साधना में संलग्न है। कोई पद का उम्मीदवार नहीं है। हमारे आचार्यों का शिक्षा सूत्र रहा है- पद के उम्मीदवार नहीं, योग्य बनो। इसलिए तेरापंथ में शिक्षा, साहित्य की सर्वतोमुखी उन्नति हुई है। मर्यादाएं बंधन नहीं अपितु उन्नति और विकास का सोपान है। ये व्यवस्था है, स्वेच्छा से स्वीकृत है, बलात् थोपी हुई नही है। मर्यादाएं प्रहरी के समान है, हमारा जीवन है, निधि है, सर्वस्व है, जीवन का नवनीत है। आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में 'तेरापंथ का पर्याय मर्यादा है और मर्यादा का पर्याय तेरापंथ है।'
मर्यादा महोत्सव
आचार्य श्री भिक्षु ने अंतिम मर्यादा पत्र सं. 1859 में माघ शुक्ल सप्तमी को लिखा था। श्रीमद् जयाचार्य ने मर्यादा पत्र के आधार पर ही माघ शुक्ल सप्तमी का दिन मर्यादा महोत्सव के लिए चुना। इस अवसर पर प्रायः सभी साधु-साध्वियां, समण-समणियां एकत्रित होते हैं। आचार्य श्री सबकी सारणा-वारणा करते हैं। पूरे वर्ष भर का वार्षिक विवरण देखते हैं। जिन्होंने प्रमाद किया होता है उन्हें वे वारणा करते हुए प्रायश्चित देकर शुद्ध करते हैं, और विशेष साधना, शुद्ध आचार-मर्यादा का पालन करने वालों को ओर विशिष्ट कार्य करने वालों की सारणा करते हुए उन्हें बहुमान देकर प्रोत्साहित किया जाता है। मर्यादा महोत्सव का मूल दिन सप्तमी का होता है। यह दिन तेरापंथ का संविधान दिन होता है। आचार्यश्री के निर्देश पर बड़ी हाजरी होती है। हाजरी के पश्चात आचार्यश्री चातुर्मासों की घोषणा कराते हैं। जिसकी प्रचलित भाषा में 'लॉटरी' खुलने से तुलना की जाती हैं। सभी श्रद्धाभाव से आदेश को शिरोधार्य करते हैं।
मर्यादा महोत्सव की सपन्नता के पश्चात सभी आचार्यश्री से अभिनव प्रेरणा एवं स्फुरणा प्राप्त कर आगामी कार्य क्षेत्र के लिए अपने गंतव्य को और प्रस्थान करते हैं। आचार्य श्री महाश्रमणजी के सान्निध्य में 161 वां मर्यादा महोत्सव आयोजित हो रहा है। इससे प्रेरणा लेकर हमारी हर सांस के साथ यह स्वर प्रतिध्वनित होता रहे :-
आणं शरणं गच्छामि। मेरं शरणं गच्छामि।
धम्मं शरणं गच्छामि। आयरियं शरणं गच्छामि।