
संबंधातीत चेतना की ओर होती है अणगार धर्म की गति : आचार्यश्री महाश्रमण
संयम रत्न प्रदाता आचार्यश्री महाश्रमणजी के पावन करकमलों द्वारा भुज में दीक्षार्थी केविन की दीक्षा का भव्य समारोह आयोजित किया गया। संयम सुमेरु आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि धर्म की महिमा अत्यंत महान बताई गई है। अहिंसा, संयम और तप— ये ही धर्म के मूल तत्व हैं। गृहस्थ जीवन में भी धर्म की साधना एक सीमा तक हो सकती है, लेकिन इसकी विशिष्ट आराधना केवल एक साधु या अणगार ही कर सकता है।
गृहस्थ जीवन अगार धर्म कहलाता है, जबकि साधु का जीवन अणगार धर्म होता है। साधु अनिकेत होता है, सांसारिक संपर्कों से मुक्त होकर चेतना के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित होता है। अणगार धर्म की गति सम्बंधातीत चेतना की ओर होती है। एक भिक्षु केवल भिक्षा पर निर्भर रहकर अपना जीवन यापन करता है। आज का अवसर अणगार— जैन मुनि दीक्षा का है। यह तेरापंथ की दीक्षा परंपरा से जुड़ा शुभ प्रसंग है। पूज्य प्रवर ने दीक्षार्थी के पारिवारिक जनों से लिखित एवं मौखिक स्वीकृति प्राप्त की कर दीक्षा संस्कार प्रारंभ कराते हुए, भगवान महावीर का पावन स्मरण किया गया। आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु एवं उनकी उत्तरवर्ती परंपरा को वंदन कर गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञजी को सादर वंदन-स्मरण किया। इसके पश्चात्, आर्ष वाणी का उच्चारण कराते हुए सामायिक पाठ के उच्चारण के साथ दीक्षार्थी को यावज्जीवन के लिए सर्व सावद्य योग का तीन करण तीन योग से त्याग करवाया।
पूज्यवर ने आर्षवाणी के माध्यम से अतीत की आलोचना करवाई। केश लोचन संस्कार संपन्न कर, अहिंसा का प्रतीक रजोहरण नवदीक्षित मुनि को प्रदान किया गया। पूज्यवर ने आशीर्वचन प्रदान करते हुए, नवदीक्षित मुनि का नामकरण मुनि कैवल्य कुमार के रूप में किया। पूज्यवर ने नवदीक्षित मुनि कैवल्य कुमार जी को प्रेरणा देते हुए कहा कि— हर क्रिया संयमपूर्वक करें, ईर्या समिति का ध्यान रखें, जीवन में शांति और त्याग बनाए रखें तथा उत्तम साधना करें। नवदीक्षित मुनि को शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए बहुश्रुत परिषद के सदस्य मुनि दिनेशकुमारजी को सौंपा गया। दीक्षा संस्कार से पूर्व, मुमुक्षु भाइयों ने दीक्षार्थी केविन का परिचय दिया। आज्ञा पत्र का वाचन मोतीलाल जीरावला ने किया। दीक्षार्थी के परिजनों ने आज्ञापत्र पूज्यवर को समर्पित किया।
पूज्य प्रवर ने आगे फरमाया कि आज ही के दिन पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की बाल्यावस्था में दीक्षा हुई थी। उनकी दीक्षा को 94 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। अतीत के दस आचार्यों में उनका आयुष्य और संयम सर्वाधिक था। वे उच्चतम उम्र में युवाचार्य पद पर आसीन हुए थे और अपने गुरु के सान्निध्य में ही आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का दिवस ही मुनि कैवल्यकुमार का दीक्षा दिवस बन गया है। मुनि कैवल्यकुमार खूब अच्छा विकास करे। दूसरों का भी जितना उन्नयन कर सके, करने का प्रयास करना चाहिए। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय संस्कृति में संन्यास को अत्यंत महत्व दिया गया है। जैन धर्म में भी दीक्षा का विशेष आकर्षण बना हुआ है। महाव्रतों को स्वीकार करने में महान आनंद की अनुभूति होती है।
कुछ विरले ही ऐसे होते हैं, जो अध्यात्म के मार्ग को अपनाकर सच्चे सुख का अनुभव करते हैं। संसार बंधन है, और इस बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया ही दीक्षा है। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।