संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

फारसी धर्म में भी दो प्रकार की बुद्धि का उल्लेख है-प्राकृतिक बुद्धि और शिक्षा के द्वारा होने वाली बुद्धि। प्राकृतिक बुद्धि आत्मा के निकट की बुद्धि है। वह प्रत्येक गलत चरण को रोकने के लिए संकेत देती है। इसके ढंक जाने पर मनुष्य बाहर की दुनिया में चला जाता है। आत्मविद् वह है जो आत्म जगत् के आनंद का अनुभव करता है।
३८. श्रुतवन्तो भवन्त्येके, शीलवन्तोऽपरे जनाः।
श्रुतशीलयुता एके, एके द्वाभ्यां विवर्जिताः।।
पुरुष चार प्रकार के होते हैं-
१. श्रुतसंपन्न-ज्ञानवान् २. शीलसंपन्न -आचारवान्
३. श्रुतसंपन्न और शीलसंपन्न ४. न श्रुतसंपन्न और न शीलसंपन्न।
३९. श्रुतवान् मोक्षमार्गस्य, देशेन स्याद् विराधकः।
शीलवान् मोक्षमार्गस्य, देशेनाराधको भवेत्॥
जो पुरुष केवल श्रुतसंपन्न होता है, वह मोक्ष मार्ग का देश-विराधक-आंशिक रूप से विराधक होता है। जो पुरुष केवल शीलसंपन्न होता है, वह मोक्ष-मार्ग का देश-आराधक आंशिक रूप से आराधक होता है।
जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया-दोनों से मोक्ष मानता है। जो एकांतवादी दर्शन हैं वे केवल ज्ञान या केवल क्रिया से मोक्ष मानते हैं। यह अययार्थ है। जहां श्रुत और आचार का समन्वय है, वहीं लक्ष्य की प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान व्यक्ति को मूढ़ बनाता है और ज्ञानशून्य क्रिया निराधार होती है। इसलिए ज्ञान से समन्वित क्रिया और क्रिया से समन्वित ज्ञान ही लक्ष्य साधक होता है।
४०. इदं दर्शनमापन्नो, मुच्यते नेति संगतम्।
श्रुतशील समापन्नो, मुच्यते नात्र संशयः।।
कुछ लोगों का अभिमत है कि अमुक दर्शन को स्वीकार करने से व्यक्ति मुक्त हो जाता है किन्तु यह संगत नहीं है। सचाई यह है कि जो श्रुत और शील से युक्त होता है, वह निःसंदेह मुक्त हो जाता है।
४१. श्रुतशील समापन्नः, सर्वथाऽऽराधको भवेत्।
द्वाभ्यां विवर्जितो लोकः, सर्वथा स्याद् विराधकः।।
जो श्रुत और शील से संपन्न है, वह मोक्ष मार्ग का सर्वथा आराधक है। जो श्रुत और शील-दोनों से रहित है, वह मोक्ष मार्ग का सर्वथा विराधक है।
'सयं सयं उवट्ठाणे, सिद्धि मेव न अन्नहाः सम्प्रदायों का यह स्वर सदा ही प्रबल रहा है। सभी यह दावा करते हैं कि मेरे सम्प्रदाय में आओ तुम्हारी मुक्ति होगी। मानो परमात्मा ने सम्प्रदायों के हाथों में प्रमाणपत्र दे दिया हो। मुक्ति का सूत्र सम्प्रदायों के पास हो सकता है किन्तु मुक्ति सम्प्रदायों में नहीं है। मुक्ति का अस्तित्व सबसे मुक्त है, स्वतंत्र है। सम्प्रदाय मुक्त नहीं करते, और न कोई व्यक्ति बंधन मुक्त करता है। 'बोधिधर्म' ध्यान परंपरा के एक महान् आचार्य हुए हैं। शिष्य ने उनसे जिज्ञासा की 'बुद्ध का नाम लेना चाहिए या नहीं?' कहा 'नहीं'। अगर नाम मुंह में आ जाए तो कुल्ला कर साफ कर लेना चाहिए। मार्ग में आते हुए मिल जाएं तो देखना नहीं, भाग जाना।' शिष्य को यह आशा नहीं थी। वह डरा। क्या कह रहे हैं? बोधिधर्म बोले-'सुनो! यह तो कुछ भी नहीं है। जब मेरी सत्संग होती है तब एक बार स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि तलवार लेकर गर्दन काट देनी पड़ी, तभी मैं अपने को पा सका। शिष्य अवाक् रह गया। उसे यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि गुरु रोज बुद्ध-प्रतिमा की पूजा करते हैं, नमस्कार करते हैं।
शिष्य ने पूछा-'फिर यह पूजा और नमस्कार क्यों करते हैं? 'बोधिधर्म' ने कहा वे गुरु हैं। उन्होंने स्वयं ही मुझे यह समझाया था कि जब मुझे छोड़ दोगे तभी अपने को प्राप्त कर सकोगे। यह तो सिर्फ अनुग्रह है। महावीर भी ठीक ऐसा ही गौतम से कह रहे हैं 'वोच्छिंदि सिणेहमप्पणो'-मेरे साथ जो स्नेह है, उसे छोड़कर स्वयं में प्रतिष्ठित हो।
महावीर ने कहा है जो सम्यक्ज्ञान और सम्यग् आचरण-चरित्र सम्पन्न, होते हैं, वे मुक्त होते हैं। बुद्ध ने शील, समाधि और प्रज्ञा का सूत्र दिया है। सम्यग् ज्ञान से स्वयं का बोध होता है, और चरित्र से स्वभाव में अवस्थित रहता है। जिसने स्वयं को जान लिया और स्वयं में अपनी प्रतिष्ठा बना ली, मुक्ति उससे कैसे दूर हो सकती है? साध्य के लिए ज्ञान और आचरण अपेक्षित है।