संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद
भगवान् प्राह

(39) कृतध्यानकपाट×च, संयमेन सुरक्षितम्।
अध्यात्मदत्तपरिघं, ब्रह्मचर्यमनुत्तरम्॥
ब्रह्मचर्य अनुत्तर धर्म है। संयम-इंद्रिय और मन के निग्रह द्वारा वह सुरक्षित है। उसकी सुरक्षा का कपाट हैध्यान और उसकी अर्गला हैअध्यात्म।
ब्रह्मचर्य भगवान् है, तपों में उत्तम तप है। ब्रह्मचर्य से देवता अमर बन जाते हैं। अर्थववेद में नेता के लिए ब्रह्मचारी होना आवश्यक माना है।
ऐतरेय उपनिषद् में कहा हैशरीर के समस्त अंगों में जो यह तेजस्विता है वह वीर्य-जन्य ही है। प्रश्‍नव्याकरणसूत्र में ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत व्यापक किया है। ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। कुंदकुंद कहते हैं‘जो स्त्रियों के सुंदर अंगों को देखते हुए भी विकार नहीं लाते वे ब्रह्मचारी हैं।’ महात्मा गांधी कहते हैं‘ब्रह्मचर्य का अर्थ है समस्त इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण और मन, वचन, कृत्य द्वारा लोलुपता से मुक्‍ति।’
ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान देने से ये सारे अर्थ उसी में सन्‍निहित हो जाते हैं। ब्रह्म का अर्थ हैआत्मा का परमात्मा। उसमें विचरण करने वाला ही वास्तविक ब्रह्मचारी है। जब आत्म-विहार से व्यक्‍ति बाहर चला जाता है तब न ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहता है, न अहिंसा और न ध्यान।

(40) कृताकम्पमनोभावो, भावनानां विशोधक:।
सम्यक्त्वशुद्धमूलोऽस्ति, धृतिकन्दोऽपरिग्रह:॥
अपरिग्रह से मन की चपलता दूर हो जाती है, भावनाओं का शोधन होता है। उसका शुद्ध मूल है सम्यक्त्व और धैर्य उसका कंद है।
अनैतिकता का मुख्य हेतु हैअर्थ-लिप्सा। भीष्म पितामह ने इसी कटु सत्य को यों सामने रखा हैहे युधिष्टर! तुम्हारा कहना अनुचित नहीं है कि आप धर्म को छोड़ अधर्म की ओर क्यों चले गए? मैं बताऊँ तुम्हें, मनुष्य अर्थ का दास है, किंतु अर्थ किसी का दास नहीं है। अर्थ के प्रलोभन ने ही मुझे कौरवों का पक्षपाती बना दिया। परिग्रह अनर्थ की धुरा है। मानसिक मलिनता को परिग्रह में आसक्‍त व्यक्‍ति छोड़ नहीं सकता। सच्चाई यह है कि पवित्रता, स्थैर्य, शुद्धि और धैर्य का निवास अपरिग्रह में है। असंतुष्ट व्यक्‍ति बार-बार उत्पन्‍न होता है और मरता है, भले फिर वह इंद्र भी क्यों न हो।
सुख आवश्यकताओं को बढ़ाने में नहीं है। मनुष्य जितना स्व-सीमा में रहता है उतना ही वह सुखी और शांत रहता है। सीमा का अतिक्रमण अशांति को उत्पन्‍न करता है। परिग्रह स्व नहीं, पर है। वह सहायक है, किंतु सर्वेसर्वा नहीं। वह शरीर की भूख है न कि आत्म-चेतना की। इस विवेक पर चलने वाला उससे चिपका नहीं रहता। न वह शोषण करता है और न अनावश्यक संग्रह। महाभारत में कहा है

भ्रियते यावज्जठरं, तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
अधिकं योऽभिमन्येत, से स्तेनो दंडमर्हति॥
जितना पेट भरने के लिए आवश्यक होता है, वही व्यक्‍ति का अपना हैव्यक्‍ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए। जो इससे ज्यादा संग्रह करता है वह चोर है, दंड का भागी है।

मेघ: प्राह
(41) किं नाम भगवन्! धर्म: कस्मै तस्याऽनिवार्यता।
विद्यते तस्य को लाभ:, जिज्ञासाऽसौ निसर्गजा॥
मेघ बोलाभगवन्! धर्म क्या है? उसकी अनिवार्यता क्यों है? उसका लाभ क्या है? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है।

भगवान् प्राह
(42) चैतन्यानुभवो धर्म: सोपानं प्रथमं व्रतम्।
तपसा संयमेनासौ, साध्योऽस्ति सकलैर्जनै:॥
भगवान् ने कहाधर्म है चैतन्य का अनुभव। उसका प्रथम सोपान है व्रत। उसकी साधना के दो हेतु हैंतप और संयम।
(क्रमश:)