साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(15)

स्फटिक से उजले तुम्हारे जन्मदिन पर
स्फटिक-सी कमनीय वे सारी कथाएँ
आज कहने और सुनने की ललक है
मूर्त हो जाएँ सभी वे कल्पनाएँ॥

मुक्‍त हाथों से उसे बाँटो जहाँ में
पुलक जीवन में तुम्हारे जो भरी है
बोध तट का देव! तुम ही दे सकोगे
जो खड़ी मझधार में जीवन-तरी है
चाह सीमाहीन जो मन में जगाई
पूर्ण करने दो तुम्हीं संभावनाएँ॥

इस धरा पर बीतते दिन-रात कितने
पुण्य पल ये आज के अनमोल सारे
वर्षभर करते प्रतीक्षा हम इसी की
चमकते हैं नील नभ में नव सितारे
हर नए युग का सृजन होगा इसी दिन
सृजित होगी आज अभिनव अल्पनाएँ॥

अधखुली कलियाँ हृदय की कांत किसलय
आज तुम पर हो निछावर महकते हैं
ये अबींधे भावना के रुचिर मोती
मुग्ध प्राणों के विहग सब चहकते हैं
जिंदगी की साधना है सफल तुमसे
खिल रहा आकाश पुलकित हैं दिशाएँ॥

याद आते ही तुम्हारे जन्मदिन की
गीत की कड़ियाँ स्वयं निर्माण पातीं
भावना के धवल लाजा वारती हैं
पौरकन्याएँ मधुर स्वर गुनगुनाती
दे सकूँ तुमको कहाँ सौगात ऐसी
देवते! हैं मुखर कोमल कामनाएँ॥

(16)

तुम निर्मल निर्झर इमरत के जीवन में रसधार बहे।
पाया तुमसे तेज समुज्ज्वल बस उसका आधार रहे॥

तुम प्रतीक हो पौरुष के उसमें विश्‍वास तुम्हारा है
नियति भाग्य तो दूर स्वयं ब्रह्मा भी तुमसे हारा है
मुक्‍त तुम्हारे खातिर हर दिन रिद्धि-सिद्धि के द्वार रहे॥

स्वप्न तैरते नए-नए नित इन नयनों के सागर में
कैसे भर पाऊँ मैं उनको शब्दों की लघु गागर में
हर झंझा में बनकर तुम ही नाव और पतवार रहे॥

रहा अलक्षित इन आँखों से अब तक तो व्यक्‍तित्व विराट
हर उलझन के समाधान तुम नूतन सपनों के सम्राट
सदा सुरीली लय में मुखरित हृत्तंत्री के तार रहे॥

करें आरती पल-पल उजली आशाओं के दीप जले
भावों के स्वस्तिक उकेरती संवेदन की सीप लिए
श्रद्धा से अभिषिक्‍त भावना से भीनी मनुहार रहे॥
(क्रमश:)