आत्मा के आसपास
ु आचार्य तुलसी ु
प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा
परिवर्तन की प्रक्रिया
प्रश्न : ध्यान भीतरी रूपांतरण की अमोघ प्रक्रिया है, यह बात सही है। पर समस्याओं से घिरा हुआ व्यक्ति ध्यान के लिए अपने मानस को तैयार कैसे कर सकता है? वैसी मानसिकता निर्मित होने पर भी वर्षों से पनपी हुई आदतें कैसे बदल सकती हैं?
उत्तर : कुछ आदतों के मूल में तनाव काम करता है। जीवन में निरंतर की समस्याओं से आक्रांत व्यक्ति तनाव का शिकार हो जाता है। उस तनाव को कम करने के लिए वह मादक द्रव्यों का सेवन करता है। उससे बाहर का तनाव तो एक बार क्षीण होता हुआ प्रतीत होता है, किंतु भीतरी तनाव अधिक हो जाता है। उस तनाव को न तो मादक पदार्थ दूर कर सकते हैं और न औषधियाँ। अनेक स्थलों पर वैज्ञानिक परीक्षणों से प्रमाणित हो चुका है कि औषधियों द्वारा जो उत्तेजना कम नहीं हुई, तनाव समाप्त नहीं हुआ, वह ध्यान के द्वारा नामशेष हो गया। हमारे शिविर-कालीन अनुभव भी यही बताते हैं कि ध्यान में व्यक्ति बहुत बदल जाता है। बहुत अधिक नशा करने वाले, अकारण उत्तेजित रहने वाले लोग भी ध्यान शिविर में साधना करने के बाद काफी बदले हुए पाए गए।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि आदमी जितना अधिक तनाव में रहता है, उतना ही आग्रही होता है। आग्रह की स्थिति में उसे अपनी भूल का अनुभव नहीं होता। ध्यान की मानसिकता अनाग्रह की स्थिति में निमित्त हो सकती है। ध्यान अपने आपमें विनम्रता का एक प्रयोग है, अनाग्रह का प्रयोग है। ध्यानकाल में अहं टूटता है, आग्रह छूटता है, विनम्रता बढ़ती है और अनाग्रह विकसित होता है। इसका कारण स्पष्ट हैध्यान करने वाला सत्य का साक्षात्कार करने की दिशा में आगे बढ़ता है। जहाँ सत्य साक्षात हो जाता है, वहाँ किसी भी बात का आग्रह हो ही नहीं सकता। आग्रह जितना भी होता है, परोक्षज्ञानी में ही होता है। प्रत्यक्षज्ञानी सत्य के प्रति समर्पित होता है, सत्य उसे प्राप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में आग्रह को टिकने का स्थान ही नहीं मिलता। अनाग्रही व्यक्ति में परिवर्तन करना नहीं पड़ता, स्वयं घटित होता है। ध्यान के द्वारा तनाव का ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता है। उसके बाद दृष्टि स्पष्ट होती है। उससे आग्रह समाप्त होता है और अनाग्रही चित्त किसी भी गलत आदत से सहजता से मुक्त हो सकता है।
भगवान महावीर ने जिस अनेकांत या स्याद्वाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, वह उनके ध्यान की ही फलश्रुति थी। जो साधक ध्यान में नहीं जाता, वह अनेकांत का प्रयोग कैसे कर सकता है? ध्यान के क्षणों में अनेकांत जैसा अनाग्रही दर्शन आविर्भाव पा सकता है।
अब प्रश्न यह रहा कि समस्याओं से घिरा हुआ व्यक्ति ध्यान में जा कैसे सकता है? कुछ कठिनता तो इनमें है
ही पर दृष्टिकोण की स्पष्टता और संकल्प की दृढ़ता के सामने कोई भी कठिनाई टिक नहीं सकती। जब व्यक्ति का दृष्टिकोण इतना स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान के द्वारा हर आदत बदल सकती है तो इस धारणा के साथ ही वह ध्यान के प्रयोग करने के लिए संकल्पबद्ध हो जाता है। संकल्प बल से किसी भी व्यक्ति का मानस किसी भी दिशा में मोड़ा जा सकता है।
प्रश्न : क्या संकल्प मात्र से किसी भी व्यक्ति में स्वभाव-परिवर्तन की संभावना सत्य रूप में परिणत हो सकती है।
उत्तर : ध्यान के द्वारा परिवर्तन तभी संभव है जब ध्यान में जाने के लिए गहरी आस्था हो। आस्था का निर्माण हुए बिना ध्यान में जाने की क्षमता अर्जित नहीं हो सकती। कुछ व्यक्तियों में नैसर्गिक आस्था होती है और कुछ व्यक्तियों की आस्था का निर्माण करना पड़ता है। आस्था पर संकल्प की पुट लग जाए और अनवरत अभ्यास का क्रम चलता रहे तो आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। अभ्यास ऐसा तत्त्व है जो साधना की शृंखला को बराबर जोड़े रखता है। अभ्यास की धारा टूटने से सफलता संदिग्ध हो जाती है। आस्था, संकल्प और अभ्यासइन तीन तत्त्वों के अधिगत हो जाने के बाद साधक में आत्मानुशासन का विकास हो जाता है। यह अनुशासन आरोपित नहीं होता, सहज स्वीकृत होता है। इस अनुशासन में संयम के विकास की अनिवार्यता है। संयम से हमारा प्रयोजन हैतन्मयता से। यह तन्मयता ही भावक्रिया है। केवल त्याग-प्रत्याख्यान से संयम नहीं सध सकता। त्याग-प्रत्याख्यान भी साधना का एक प्रकार है, किंतु उसमें पूर्णता नहीं है। साधना में पूर्णता लाने के लिए संयम के साथ भावक्रिया का होना नितांत अपेक्षित है।
पूर्ण संयम का विकास तब हो सकता है, जब पदार्थ-प्रयोग से मन विरत हो। अथवा इस तथ्य को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि संयम के प्रति रति होने से पदार्थ-भोग के प्रति अरति हो सकती है। ‘अनुरागाद् विराग:’ अनुराग से विराग का होना एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बच्चे के हाथ से किसी वस्तु को छुड़ाने के लिए उसे अधिक आकर्षक खिलौने या किसी दूसरी वस्तु के प्रति आकृष्ट करना होता है। अन्यथा वह उसे छोड़ नहीं सकता। पदार्थ विरति भी उसी क्षण घटित हो सकती है, जिस क्षण आत्मा या चैतन्य के साथ उसका संबंध स्थापित हो जाता है। यह स्थिति पतंजलि के शब्दों में धारणा के रूप में निरूपित की गई है। धारणा की धाराप्रवाह प्रतीति ध्यान है और ध्यान में पूर्ण तन्मयता का नाम समाधि है। संयम की पूर्णता के लिए धारणा, ध्यान और समाधि तीनों ही आवश्यक है। ध्यान साधना के अनुशासन की पूरी प्रक्रिया शिविर-साधना को आगे बढ़ाती है। साधक की शारीरिक और मानसिक स्थिति में संयम या साधना के अनुशासन की पूर्ण स्वीकृति ही शिविर-साधना का ठोस आधार है।
(क्रमश:)