ईमानदार व्यक्ति का वरण करती है समृद्धि और सुगति : आचार्यश्री महाश्रमण
अर्जुननगर से लगभग ग्यारह किलोमीटर का विहार कर युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ हरिपर गांव में स्थित श्रीमती चंचलबेन विहारधाम परिसर में पधारे। तेरापंथ सरताज ने उपस्थित जनसमूह को आध्यात्मिक प्रेरणा प्रदान करते हुए जैन वांग्मय में वर्णित अठारह पापों में से तीसरे पाप 'अदत्तादान' के विषय में समझाने का प्रयास किया। आचार्यश्री ने फरमाया कि अदत्तादान का अर्थ है, वह चीज लेना जो उसके मालिक ने नहीं दी है। यह चोरी के समान है और इसे पाप माना गया है। चोरी न करना एक उत्तम संकल्प है। ईमानदार व्यक्ति के लिए न केवल मोक्ष प्राप्ति की संभावना बढ़ती है, बल्कि समृद्धि, यश और कीर्ति भी उसकी ओर आकर्षित होती हैं। कहा गया है कि जिसने संकल्प कर लिया कि मैं चोरी नहीं करूंगा, ऐसे ईमानदार व्यक्ति का समृद्धि भी वरण करती है, सुगति उसको चाहती है, दुर्गति उसे देख भी नहीं पाती।
आचार्यश्री ने ईमानदारी के तीन प्रमुख आयाम बताए :
1. चोरी नहीं करना।
2. झूठ नहीं बोलना।
3. छल-कपट नहीं करना।
आचार्य प्रवर ने कहा कि चोरी करना न केवल व्यक्ति को नैतिक रूप से गिराता है, बल्कि उसे भविष्य में अपने कर्मों का फल चुकाने के लिए बाध्य करता है। साधु के जीवन में अदत्तादान विरमण महाव्रत का पालन अनिवार्य है। साधु तो बिना अनुमति के छोटी से छोटी वस्तु भी नहीं लेते। गृहस्थों के लिए अणुव्रत के रूप में चोरी न करना आवश्यक है। दूसरों की चीज मांग लेना अलग बात है, लेकिन चुराना नहीं चाहिए। धन केवल भौतिक संपदा नहीं, बल्कि उदारता और परोपकार का साधन होना चाहिए। कहा गया है कि जो व्यक्ति धन का सदुपयोग नहीं करता, वह दरिद्र ही है।आचार्यश्री ने बताया कि चोरी के पीछे प्रमुख कारण गरीबी, अभाव और लोभ हो सकते हैं। लेकिन इनसे बचने के लिए संस्कारों का निर्माण आवश्यक है। बच्चों को बचपन से ही नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। स्कूलों में अन्य विषयों के साथ अच्छे संस्कार और नैतिकता का शिक्षण भी अनिवार्य होना चाहिए। आचार्यश्री ने स्कूल के बच्चों से संवाद किया और उन्हें प्रेरणाएं प्रदान कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।