तेरापंथ के प्राणतत्त्व हैं - मर्यादा, अनुशासन और व्यवस्था

तेरापंथ के प्राणतत्त्व हैं - मर्यादा, अनुशासन और व्यवस्था

भारतीय परम्परा में मर्यादा की महिमा सर्वकालीन रही है। मर्यादा पुरुषोतम राम को इसीलिए तो कहा गया है कि उन्होंने अपनी मर्यादा को समझा, जाना और जीया। उन्होंने अपने पद और कर्तव्यों से जुड़ी प्रत्येक मर्यादा का निष्ठापूर्वक पालन किया। चाहे वे वनवास में रहे, युद्धभूमि में रहे अथवा राज्य का संचालन किया। जो व्यक्ति, परिवार, संघ-समाज में अपनी मर्यादा का पालन करता है वह सम्माननीय, पूजनीय बन जाता है और दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है। तेरापंथ धर्मसंघ के संस्थापक आचार्य भिक्षु ने जब धर्मसंघ की स्थापना की तो उन्होंने अपनी दूरगामी सोच के साथ मर्यादाओं का निर्माण किया। वे मानवीय प्रकृति से परिचित थे। इसीलिए उन्होंने भविष्य को जानते हुए, देखते हुए जिन मर्यादाओं का निर्माण किया था उसे स्वीकृति प्रदान करने के लिए किसी पर दबाव नहीं डाला बल्कि स्वेच्छा से स्वीकृति प्रदान करने का सुझाव दिया। उन्होंने स्पष्ट कहा- 'भलीभांति साधुपन पलता जाने, गण में अथवा अपने आपमें साधुपन माने तो गण में रहें। वंचनापूर्वक गण में रहने का त्याग है।'
आचार्य भिक्षु एक विधिवेत्ता आचार्य थे। मनोवैज्ञानिक आचार्य थे। वे व्यक्ति के मनोभावों को जानते हुए बात करते थे। उनका अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित था। अतः ढाई सौ वर्ष पूर्व जिन मर्यादाओं का सूत्रपात उन्होंने किया था वे आज भी उसी रूप में अक्षुण्ण हैं। कौन जानता था कि यह धर्मसंघ इतना शक्ति सम्पन्न होगा और धर्मसंघ इतने लम्बे समय तक चलता रहेगा, किन्तु आज भी यह अपनी शान के साथ चल रहा है। इसके पीछे आचार्य भिक्षु की दूरगामी सोच तथा उत्तरवर्ती आचार्यों का समसामयिक चिंतन तथा धर्मसंघ के सदस्यों में मर्यादाओं के प्रति निष्ठा से पालन की भावना है। आज भी आचार्य की आज्ञा, अनुशासन, मर्यादा और व्यवस्था का मनोभाव से पालन हो रहा है। जिस संघ-समाज और राष्ट्र में कानून अथवा नियमों के प्रति आस्थाभाव नहीं होता है वह स्थिर नहीं हो सकता। तेरापंथ धर्मसंघ का चिर जीवित होने का मूल कारण है- मर्यादाओं के प्रति निष्ठा का भाव। जहां मर्यादा के प्रति निष्ठा का भाव है वहां पालना भी संभव है।
प्राकृतिक क्षेत्र में देखा जाय तो सभी अपनी मर्यादाओं में रहकर ही उपयोगी बने हुए हैं। जब कभी प्रकृति अपनी मर्यादा से विपरीत होती है तो खतरनाक साबित हो जाती है। सबकी अपनी-अपनी मर्यादा होती है। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र-अपनी मर्यादा में रहकर ही उपयोगी साबित होते है। आज हम देखते हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता होने के बावजूद व्यक्ति सामाजिक व राष्ट्रीय कानूनों से आबद्ध है। उस पर सामाजिक व राष्ट्रीय कानून लागू है।
राष्ट्र का अपना संविधान है। उसका पालन करना प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक है। तेरापंथ धर्मसंघ का भी एक संविधान है। एक आचार, एक विचार, एक आचार्य केन्द्रित धर्मसंघ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता होने बावजूद आचार्य द्वारा प्रदत्त हर मर्यादा का पालन अनिवार्य है। कुछ नियम ऐसे हैं जो सम सामयिक होते हैं, जिन्हें संघहित में लागू किया जाता है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के साथ निरस्त भी किया जा सकता है। जिस युग में आचार्य जिन मर्यादाओं को लागू करते हैं वर्तमान आचार्य उनमें परिवर्तन या संशोधन भी कर सकते हैं, आचार्य भिक्षु ने उत्तरवर्ती आचार्यों का यह अधिकार भी दिया है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है- मैंने जिन मर्यादाओं का निर्माण किया है, उत्तरवर्ती आचार्य उचित समझें तो उसमें परिवर्तन, संशोधन अथवा नई मर्यादा का निर्माण करें। धर्मसंघ के प्रत्येक सदस्य उसे सहर्ष स्वीकार करे।
तेरापंथ के प्रत्येक सदस्य में अनाग्रह का भाव है। इसीलिए यह धर्मसंघ आदर्श के रूप में मान्य है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जाए तो वही संघ-समाज और राष्ट्र तरक्की कर सकता है जिसमें नियमों के प्रति आस्था हो, निष्ठापूर्वक पालन हो, इससे समाज में समरसता, राष्ट्र में शान्ति का वातावरण हो सकता है। तेरापंथ धर्मसंघ में वर्तमान आचार्य की साधना और शासना का ही प्रभाव है कि यह धर्मसंघ समय की समझ के साथ निरन्तर गतिशील है। मर्यादा-महोत्सव के सुपावन अवसर पर आचार्य प्रवर द्वारा प्रदत्त संदेश, दिशानिर्देश पर चलना ही सबके लिए हितकर व कल्याणकारी है। एकतंत्र में राजतंत्र और राजतंत्र में एकतंत्र ही धर्मसंघ की पहचान है। मर्यादा, अनुशासन और व्यवस्था तेरापंथ के प्राण तत्त्व हैं।