मेरा संघ मेरा सम्मान

मेरा संघ मेरा सम्मान

आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में:
संघः शरणं त्राणं गति प्रतिष्ठा च साधना धारः।
तस्मात् भूयो भद्रं भूयाद् धन धाय धर्म
संघाय:।।
यह संघ हमारा त्राण है, शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है। यह तभी संभव है जब 'मैं गण का और गण मेरा है' यह भावना साधक के रोम-रोम में रम जाती है और गण के साथ हम एकीभूत हो जाते हैं। फूल तभी पूजा के योग्य होता है जब डाली से संयुक्त होता है। उसी प्रकार, अनुशासन और मर्यादा में रहते हुए जब गुरु इंगित की आराधना की जाती है, तो संघ हमारा सम्मान करता है।
संघ एक रमणीय उपवन है
जैसे एक उपवन नाना प्रकार के फूलों से सुसज्जित होता है, उसी प्रकार तेरापंथ धर्म संघ के साधु-साध्वियाँ अपनी आज्ञा निष्ठा, गुरु निष्ठा, एवं आचार निष्ठा से संघ रूपी उद्यान को सुसज्जित बनाए हुए हैं। वे केवल तेरापंथ समाज को ही नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति को सुवासित करते हैं।
मेरा संघ कल्पवृक्ष है
जैसे कल्पवृक्ष की छाया में हर व्यक्ति अपनी इच्छा की पूर्ति करता है, उसी प्रकार इस धर्म संघ की शीतल छाया में हर साधक असीम आनंद एवं चित समाधि की अनुभूति करता है। आध्यात्मिक विकास के साथ जीवन प्रगति के नए-नए द्वार उद्घाटित करता है। यह तभी संभव है, जब गण के साथ हमारा आंतरिक अनुबंध होता है।
संघ एक चिकित्सालय है
जैसे एक शल्य चिकित्सक रोगी को शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान कर प्रसन्न करता है, उसी प्रकार तेरापंथ धर्म संघ में गुरु एक महान चिकित्सक होते हैं, जो मानसिक और भावनात्मक चिकित्सा के द्वारा संघ के हर सदस्य को साधना के पथ पर आरोहण करवाते हैं। यह चिकित्सा तेरापंथ धर्म संघ में ही संभव है, क्योंकि यहाँ हर सदस्य की गण-गणपति के प्रति एकतारी होती है।
आचार्य तुलसी ने अपने गीत में लिखा है
गण आपां रो आपां गणरा ओ आच्छो अनुबंध है,
धागे में पिरोई माला सारी सो संबंध है।
संघ एक दर्पण है
दर्पण में व्यक्ति स्वयं का प्रतिबिंब देखता है। किंतु संघ एक ऐसा दर्पण है, जिसमें व्यक्ति केवल बाहरी नहीं, आंतरिक निरीक्षण भी कर सकता है और आत्मावलोकन के द्वारा साधना के गहन तथ्यों को प्राप्त कर सकता है।
आचार्य भिक्षु ने कष्टों की कजराली रातों में भगवान महावीर को प्रतीक मानकर इस संघ की नींव रखते हुए कहा
हे प्रभो यह तेरापंथ।
संघ में जहाँ अनुशासन और मर्यादा का महत्व है, वहीं गुरु आज्ञा का विशेष महत्व है। गुरु आज्ञा संघ में दीक्षित साधु-साध्वियों का जीवन आधार है। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने कहा है:
कोई साधु पढ़ा-लिखा कम है, प्रवचनकार, लेखक, कवि, साहित्यकार नहीं है, पर जिसने गुरु आज्ञा में रहना सीख लिया, उसने संघ में जीना सीख लिया, और उसी का संघ में सम्मान है।
इसके अनेक उदाहरण हैं। जिसने धर्म संघ को छोड़ा, उसका आज कोई अस्तित्व नहीं है। तेरापंथ धर्म संघ के आचार्यों ने सदा संघ का सम्मान किया। उसी के कारण यह तेरापंथ धर्म संघ विश्व के सभी संघों में अद्वितीय है।
सेवा संघ की धड़कन है
इस संघ में सेवा का बहुत महत्व है। सेवा इस संघ की धड़कन है, श्वास है, नि:श्वास है। आचार्य महाश्रमण जी ने कहा है:
'जो साधु-साध्वियाँ वृद्ध एवं ज्ञान साधु साथियों की सेवा करते हैं, वे आचार्यों की सेवा करते हैं। उन पर गुरु की कृपा अनवरत बरसती है।'
संघ में केवल व्यक्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि उसके भीतर जो गुण हैं, उनका सम्मान होता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि आचार्यों ने रत्नाधिक साधु-साध्वियों का सम्मान किया है। वे रत्नाधिक संत-सतियाँ अपनी विनम्रता से आचार्यों एवं संघ का मान बढ़ाते हैं।
'मेरा संघ वात्सल्य, सौहार्द, सेवा, समर्पण का बहता निर्झर है, जहाँ सतत इन गुणों का आदान-प्रदान होता है।'
वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमण जी जिस रूप में संघ का संचालन कर रहें हैं और हर शिष्य की चित समाधि का ध्यान रखते हैं, उसे मैं शब्दों में बाँध नहीं सकती।
संघ का सम्मान मर्यादा और अनुशासन से है। यदि हम मर्यादित जीवन जीने में विश्वास रखें और अनुशासन में निष्ठा रखें, तो 'मेरा संघ, मेरा सम्मान' यह उक्ति चरितार्थ हो सकती है।
संघ के हम पुजारी ही नहीं, अधिकारी भी हैं।
कर्तव्य के साथ संघ विकास की ज़िम्मेदारी भी हमारी है।
आस्था का समंदर है तेरापंथ धर्म संघ।
सुरक्षा चाहते हो, तो संघ रक्षा की ज़िम्मेदारी भी हमारी है।